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लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि पदार्थों का पता लगाने वाले पूर्ण पुरुष थे। ईश्वर का आविष्कार तो कुछ ही वर्षों पहले हुआ, पर धर्मास्तिकाय का आविष्कार हुए, कौन जाने कितना काल हो गया है! यह शाश्वत पदार्थ है न आविष्कार होता न विनाश हुआ होता।
यह सुन्दर आम सामने आने पर लोग महज ही यह कल्पना करने लगते हैं कि जिस बाग में यह आम है, वह बाग और आम का वृक्ष कैसा होगा! आम-फल देखकर उसके वृक्ष को मानना ही पड़ता है उसे न मानने वाला अनाड़ी कहलाता है। इसी प्रकार जिन ज्ञानियों ने धर्मास्तिकाय आदि का पता लगाकर हमें बताया है, उन्होंने किन आत्म-भावनाओं को प्रकट करके पता लगाया होगा?
उन महात्माओं ने आत्म-भावना जागृत करके, आत्म-ज्योति प्रकट करके, जिन बातों का पता लगाया है, उन्हें जानकर हमें क्या करना चाहिए? हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि हम किसी बात का पता अपनी बौद्धिक शक्ति से चाहे लगा लें, तब अगर आत्म-शुद्धि न हुई तो कल्याण कैसे होगा? अतएव सब से पहले हमें आत्म-शुद्धि की आवश्यकता है। चित्र को निर्मल बनाना ही सब धर्मों का सार है। हृदय की पवित्रता प्राप्त करना ही धर्म है। चित्तावृत्ति शुरू होने पर अनायास ही प्रत्येक बात समझ में आ जाती है। आज जिन सुखों की कामना से तुम निर्भर काबुल रहते ही हृदय शुद्ध होने पर उतारते भी कहीं उच्चतर सुख की तुम्हें प्राप्ति होगी। इस अनिर्वचनीय सुख के सामने तुम्हारे सुख किसी गिनती में न रहेंगे।
चित्तशुद्धि का अर्थ है, विकारों को जीतना। विकार संक्षेप में दो हैंराग और द्वेष। किंचित विस्तार से काम, क्रोध, मोह, मत्सरता और अंहकार को विकार कहा जा सकता है। काम क्रोध, आदि विकारों को जीत लेना प्रत्येक आत्मा का कर्त्तव्य है, क्योंकि यही विजय लोकोत्तर आनन्द करने का साधन है। इससे आत्मा विशुद्ध चिद्रूप होकर आनन्दमय बन जाता है। अतएव लोकालोक का स्वरूप जानकर आत्मा की शुद्धि के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
गौतम स्वामी फिर पूछते हैं- भगवन्, सागर का अन्त, द्वीप के अन्त से और द्वीप का अन्त सागर के अंत से मिला हुआ है? अर्थात् दोनों के अंत एक दूसरे के अंत का स्पर्श करते हैं? जैसे जम्बूद्वीप का अंत लवणसमुद्र से और लवणसमुद्र जम्बूदीप के अंत से मिला हुआ है, उसी प्रकार सब द्वीप-समूहों की स्पर्शना है? इसके उत्तर में भगवान् ने फर्माया-गौतम! हां, १०२ श्री जवाहर किरणावली.
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