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विश्व में, गति करने वाले पदार्थ दो ही हैं-पुद्गल और जीव। यह दोनों पदार्थ लोक में ही हैं, अलोक में नहीं हैं। लोक में धर्मास्तिकाय की विद्यमानता के कारण ही उनमें गति होती है।
संस्कृत भाषा में लोक शब्द की व्युत्पत्ति है- लोक्यते इति लोकः । अर्थात् जो देखा जाय वह अलोक कहलाता है।
इस व्युत्पत्ति पर ध्यान देने से यह शंका उपस्थित होती है कि लोक एक नियत परिमाण नहीं हो सकता। जिसे जितना दिखाई दे, उसके लिए उतना ही लोक होना चाहिए, अर्थात् जो आदमी एक कोस देख सकता है, उसके लिए एक कोस का लोक हुआ और जो ज्यादा देखता है, उसके लिए ज्यादा लोक हुआ? इसका समाधान यह है कि जिसे पूर्ण ज्ञानी देखें वह लोक है। तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि पूर्ण ज्ञानी अलोक को देखते हैं या नहीं? अगर नहीं देखते तो उनके दर्शन-ज्ञान में न्यूनता माननी पड़ेगी और शास्त्रों में पाया जाने वाला अलोक का वर्णन निराधार ठहरेगा। अगर पूर्णज्ञानी अलोक को भी देखते हैं तो अलोक भी लोक हो गया? तब लोको की ठीक परिभाषा कैसे बनती है?
__ इस प्रश्न का समाधान यह है कि पूर्ण ज्ञानियों ने जिस आकाशखंड को धर्मास्तिकाय से युक्त देखा है, वह लोक कहलाता है। जैसे-जिस जगह जल देखा उसे जल-भाग कहा और जहां जल भाग न देखा उसे स्थलभाग कहा। अर्थात्-जहां जल भाग नहीं देखा तो उसे स्थल नाम दे दिया गया है। इसी प्रकार पूर्ण ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में, अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं देखा, इसलिए उस स्थल को अलोक नाम दे दिया है। जहां धर्मास्तिकाय देखा, उस आकाशखंड को लोक संज्ञा दी है।
धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त एक पदार्थ और है, जिसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। धर्मास्तिकाय गति में सहायक है और अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक है। आप भूमि पर ठहरे हैं, पर आपके ठहरने में अधर्मास्तिकाय की सहायता है।
आकाश भी एक प्रदार्थ है। वह आधार रूप क्षेत्र है। वह लोक में भी है और अलोक में भी है। लेकिन जिस आकाश के साथ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल (रूपी जड़) यह चारों अस्तिकाय होते हैं, उसे लोक और जिसमें यह चारों नहीं हैं, जहां केवल आकाश ही आकाश है, वह आलोक है। तात्पर्य यह कि ज्ञानियों ने आकाश है, वह आलोक है। तात्पर्य यह कि ज्ञानियों ने आकाश सहित पांचों अस्तिकाय जहां विद्यमान १०० श्री जवाहर किरणावली
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