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विषय में अस्सी भंग कहे हैं। इन द्वारों में मनुष्य-संबंधी भंग भी अस्सी ही समझने चाहिएं, क्योंकि ऐसे मनुष्य कम होते हैं ।
मगर इस कथन का आशय यह न समझ लिया जाय कि नारकी और मनुष्य की सम्पूर्ण प्ररूपणा एक समान ही है दोनों की प्ररूपणा में अन्तर भी है । वह अन्तर यह है कि जिन स्थानों में नारकियों के सत्ताईस भंग बतलाये हैं, वहां मनुष्यों में अभंगक समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि नारकी जीवों में अधिकांशतः क्रोध का ही उदय होता है, इस कारण नारकियों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, किन्तु मनुष्य क्रोधादि सभी कषायों में उपयुक्त बहुत पाये जाते हैं और उनके कषायोदय में कोई खास विशेषता नहीं है । इसलिए मनुष्य के संबंध में भंगों का अभाव बतलाया गया है।
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मनुष्य की प्ररूपणा में इतनी बात नारकियों से अधिक समझनी चाहिए- जघन्य स्थिति में मनुष्यों के अस्सी भंग होते हैं, जबकि नारकियों के सत्ताईस ही होते हैं। और आहारक शरीर में मनुष्यों में अस्सी भंग समझने चाहिएं। आहारक शरीर वाले मनुष्य कम ही होते हैं अतएव उनके अस्सी भंग कहे हैं। नारकियों में आहारक शरीर होता ही नहीं है ।
भगवती सूत्र व्याख्यान ८३