________________
जा सकता है कि स्वर्ग न होते हुए भी जैन सिद्धांत ने स्वर्ग का अस्तित्व बतलाया है। जैन धर्म तो सब प्रकार के पारलौकिक सुखों की भी कामना न करने का विधान करता है। गीता भी यही कहती है
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
कर्तव्य करो, फल की कामना मत करो। इस प्रकार का उपदेश प्रलोभनों के त्याग के लिए है, प्रलोभन के लिए नहीं। जैन शास्त्रों में लोभ दिखाने के उद्देश्य से स्वर्ग का वर्णन नहीं किया गया है, बल्कि स्वर्ग का वर्णन करके यह दिखाया गया है कि मनुष्यों ! तुम अपने सुखों पर क्या गर्व करते हो ! जरा स्वर्ग की सम्पदा को भी देखो, कितनी अनुपम है। लेकिन तुम उसकी भी कामना मत करो। केवल आत्मा और परमात्मा में जुदाई करने वाले कर्मों को नष्ट करने की कामना करो। कर्मों का नाश होने पर ही तुम्हें सच्चे, पूर्ण और स्वाभाविक सुख प्राप्त हो सकते हैं। अतएव स्वर्ग लोक का विधान कल्पित नहीं है और उसमें संदेह करने का कोई कारण भी नहीं है।
सूर्य को देखने की जो बात कही गई है, वह सब जगह और सब समय के लिए एकसी नहीं है। शास्त्रकारों ने प्रत्येक मंडल से सूर्य के दिखलाई देने का हिसाब अलग अलग दिया है। सूर्य जब मंडल में होता है तब भरतक्षेत्र वालों को 47263 योजन दूर से दिखलाई देता है। अन्यान्य मंडलों में जब सूर्य होता है, तब कितनी-कितनी दूर से देखा जा सकता है, इसका विशद वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में दिया गया है। जिज्ञासुओं को वहां देख लेना चाहिए।
जब गौतम स्वामी पूछते हैं भगवन्! उगता हुआ सूर्य जितने लम्बे-चौड़े, ऊंचे या गहरे क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उयोतित करता है, तपाता है और खूब तपाता है, उसी तरह क्या डूबता हुआ सूर्य भी उतने ही लम्बे, चौड़े, गहरे और ऊंचे क्षेत्र को प्रकाशित करता है? उयोतित करता है तपाता है और खूब तपाता है? अथवा कम-ज्यादा क्षेत्र को? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फरमाया-हे गौतम! उगता हुआ सूर्य जितने क्षेत्र को प्रकाशित आदि करता है, उतने ही क्षेत्र को डूबता हुआ सूर्य भी प्रकाशित करता है, यहां तक कि खूब तपाता है। इसमें अन्तर नहीं है।
फिर गौतम स्वामी पूछते हैं - भगवन्! सूर्य जिस क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उस क्षेत्र को स्पर्श करके प्रकाशित करता है या बिना स्पर्श किये ही प्रकाशित करता है? भगवान् फरमाते हैं-हे गौतम! उस क्षेत्र की छहों
- भगवती सूत्र व्याख्यान ६१
oesses