________________
मनुष्य
मूलपाठ
मस्सा वि जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीतिभंगा तेहिं ठाणेहिं मस्साणं वि असीतिभंगा भाणियव्वा । जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं । णवरं - मणुस्साणं अब्महियं जहण्णियठिइए, आहारए य असीतिभंगा ।
संस्कृत छाया
मनुष्या अपि यः स्थानैः नैरयिकाणामशीतिर्भङगास्तेः स्थानैर्मनुष्याणामपि अशीतिर्मङ्गा भणितव्याः । येषु स्थानेषु सप्तविंशतिस्तेषु अभ कम् । नवरं - मनुष्याणामभ्याधिकं जघन्यस्थित्यां, आहारके चाशीतिर्भङ्गाः ।
-
शब्दार्थ
नारकी जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे हैं, उन-उन स्थानों में मनुष्यों में भी अस्सी भंग कहने चाहिएं। और नारकियों में जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे हैं, उन स्थानों में, मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि मनुष्यों में जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग कहने चाहिए ।
विशेषार्थ
पहले नारकी जीवों का दस द्वारों से विवेचन किया जा चुका है। उन द्वारों से जिन द्वारों में नारयिकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन द्वारों में मनुष्य के संबंध में भी अस्सी भंग ही समझने चाहिएं। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर असंख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में जघन्य अवगाहना में तथा एक दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना से लेकर असंख्यात प्रदेश अधिक तक की जघन्य अवगाहना में और मिश्रदृष्टि में नारकी जीवों के श्री जवाहर किरणावली
८२