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उत्तर-गौतम! क्रोधोपयुक्ता अपि, मानोपयुक्ता अपि, मायोपयुक्ता अपि, लोमोपयुक्ता अपि। एवं पृथिवीकायिकानां सर्वेष्वपि स्थानेष्वमङ्गम्। नवरं तेजोलेश्याया अशीतिभंगः। एवं अप्कायिकाऽपि। तेजस्कायिकानां, वायुकायिकानाम् सर्वेष्वपि स्थानेष्व भगम्। वनस्पतिकायिका यथा पृथिवीकायिकाः।
शब्दार्थप्रश्न-हे भगवन्! पृथ्वीकायिकों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के स्थितिस्थान कितने कहे हैं?
उत्तर-हे गौतम! उनके स्थितिस्थान असंख्य कहे हैं। वे इस प्रकार-उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत्-उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति।
प्रश्न-भगवन्! पृथ्वीकायिकों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले और जघन्य स्थिति वाले पृथ्वी कायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं, या लोभोपयुक्त हैं?
उत्तर-हे गौतम! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त भी हैं और लोभोपयुक्त भी हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है। विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार अप्काय भी जानना। तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है। और वनस्पतिकायिक, पृथ्वीकायिक के समान समझने चाहिए।
व्याख्यान अब गौतम स्वामी पूछते हैं-प्रभो! आपने पृथ्वीकाय के जीवों के असंख्यात लाख आवास कहे हैं। ऊर्ध्वलोक में अघोलोक में और तिरछे लोक में भी पृथ्वीकायिकों के आवास हैं, इसलिए उनकी संख्या असंख्यात है। तीनों लोकों में होने के कारण उनके आवासों की नियत संख्या का पता नहीं लगता, लेकिन प्रभो! एक-एक आवास में बसने वाले पृथ्वी कायिकों के स्थिति-स्थान कितने हैं?
गौतम स्वामी के प्रश्न का भगवान ने उत्तर दिया-गौतम! पृथ्वीकायिकों के एक-एक आवास में असंख्य असंख्य स्थिति-स्थान हैं। उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त से लगाकर बाईस हजार वर्ष तक की है।
पृथ्वीकायिक का स्थान केवल शरीर-रूप ही नहीं है। भगवान ने इन जीवों का स्थिति स्थान किस प्रकार लिया है, यह बात अगम्य है, इसलिए ७४ श्री जवाहर किरणावली