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लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है । अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है। अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं। इत्यादि गम से जानना और इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक जानना । विशेष यह है कि भिन्नता जाननी चाहिए ।
व्याख्यान
नरक गति के जीवों का वर्णन करने के पश्चात् यहां देवगति का वर्णन किया जा रहा है। दोनों के चार भेद होते हैं। जो देव पाताल में रहते हैं, वे भवनपति कहलाते हैं। उनके दस दस भेद हैं। जैन शास्त्रों में इन दस-1 - विध देवों का नाम भवनवासी है। उन्हीं के संबंध में यहां प्रश्न किया गया है।
गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवन्! असुरकुमारों देवों के चौंसठ लाख भवन - तीस लाख उत्तर में और चौंतीस लाख दक्षिण में बतलाये हैं, उनमें से एक - एक भवन में कितने-कितने स्थितिस्थान है? अर्थात् जघन्य स्थिति वाले, एक समय अधिक जघन्य स्थिति वाले, दो समय अधिक जघन्य स्थिति वाले ऐसे क्रमवार स्थिति के स्थान कितने हैं? भगवान ने फरमाया - हे गौतम! असंख्य स्थितिस्थान हैं।
अब गौतम स्वामी पूछते हैं उन असंख्य स्थिति - स्थानों में रहने वाले असुरकुमारों की प्रकृति कैसी है? वह क्रोधी हैं, मानी हैं, मायी हैं या लोभी है? भगवान ने उत्तर दिया गौतम चारों ही प्रकार के हैं । तब गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवान्! नरक के जीवों की जैसी प्रकृति आपने बतलाई है, वैसी ही असुरकुमारों की है या इनमें कुछ अन्तर है? भगवान ने फरमाया - नरक के जीवों में क्रोध अधिक होता है और देवयोनि में लोभ अधिक होता है। नरक के जीवों के भंग क्रोधी, मानी, मायी, लोभी, इस प्रकार किये गए थे, परन्तु असुर कुमारों के लोभी, मायी, मानी, और क्रोधी, इस क्रम से हैं। क्योंकि कोई समय ऐसा आता है जब समस्त असुरकुमार लोभी ही लोभी हैं। कभी-कभी लोभ बहुत, मायी एक, लोभी बहुत मानी एक, इत्यादि भंगों वाले होते हैं। अतएव लोभी में बहुवचन का प्रयोग करना चाहिए । स्तनित कुमारों तक इसी प्रकार समझना । अवगाहना और स्थितिस्थान में भेद है, इसलिए इन दोनों को अलग-अलग ही कहना चाहिए। और जैसे असुरकुमारों के संबंध में कहा है, वैसा ही नागकुमारों के विषय में भी कहना चाहिए । असुरकुमारों के चौंसठ लाख भवन हैं, नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं । सुवर्णकुमारों के बहत्तर लाख, विद्युतादि छ: के छियतर लाख भवन और कुमारों के निन्यानवे लाख भवन हैं सब की पृच्छा की गई है।
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श्री जवाहर किरणावली