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कही नहीं जा सकती। एक-एक आवास में भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम स्थिति है।
फिर गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! पृथ्वीकाय के जीव क्रोधी है, 6 मानी हैं, मायी हैं या लोभी हैं? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-गौतम! उनमें क्रोध मान, माया और लोभ ये चारों ही बहुत हैं। यहां कोई भंग ही नहीं है। जहां किसी प्रकार का तारतम्य हो, वहीं भंग हो सकते हैं। यहां तारतम्य न होने के कारण भंग नहीं होते।
स्थितिस्थानों की तरह शेष नौ बातें भी कहनी चाहिएं। ऊपर असुरकुमारों के संबंध में जो कहा है, वही पृथ्वीकायिकों के विषय में समझना।
जो बात बिन्दु में है, वही सिन्धु में भी है। सिन्धु में जो खेल दिखलाई देता है, वही बिन्दु में भी दिखाई देता है। लोगों की स्थूल दृष्टि सिन्धु का खेल तो कदाचित् देख लेती है, लेकिन बिन्दु का खेल नहीं देख पाती। मगर सूक्ष्म दृष्टि से देखो तो मालूम होगा-जो खेल सिंधु में है, वही बिन्दु में भी है। अगर सिंधु के खेल बिन्दु में न हो तो बिन्दु बिन्दु से बने हुए सिंधु में वह कहां से आएं? उदाहरण के लिए-एक गेहूं के दाने में उससे उत्पन्न होने वाला पौधा, पत्ती आदि दिखाई नहीं देती, परन्तु वैज्ञानिकों ने यह देख लिया है कि गेहूं के दाने के उगने पर उनकी जो स्थिति होती है, वह स्थिति उस दाने में मौजूद है। जो बात बड़ में है, वह उसके बीज में भी है। हां, स्थूल दृष्टि से न दिखाई देने के कारण ही यह नहीं कहा जा सकता कि वृक्ष की स्थिति बीज में है।
बहुत से लोग खनिज पदार्थों में जीव होना ही असंभव मानते थे उनकी स्थिति, संहनन, संस्थान आदि को मानना और समझना तो और भी कठिन माना जाता था। लेकिन ज्ञानी जन कहते हैं अगर पृथ्वीकाय के जीवों में भी ये दस बाते न हों तो जीवपना ही नहीं रह सकता। भले ही हम लोग उनकी यह दस बातें न जान सकें, मगर भगवान तो जानते हैं।
भगवान फरमाते हैं-गौतम! पृथ्वी के जीवों की तरह जल के जीवों के संबंध में भी जानना चाहिए।
जैसे पृथ्वी में जीव हैं, उसी प्रकार जल में भी हैं। यहां यह कहा जा सकता है कि पृथ्वीकाय के जीव तो सिद्ध हुए नहीं और उनके समान जल में जीव बतला दिये, सो यह कैसे समझा जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि पृथ्वीकाय में जीव हैं, यह बात चाहे स्पष्ट रूप से हमें प्रतीत न हो फिर भी विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा यह जानी गई है। पृथ्वी में जीव होने की बात हमारे मस्तिष्क की उपज नहीं है, यह ज्ञानियों के साक्षात्कार का परिणाम है।
- भगवती सूत्र व्याख्यान ७५