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अप्पा गई वेयरणी अप्पा मे कुडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा में णंदणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च दुपट्ठिय-सुपट्टिए।।
सुख-दुख देने वाला अपना आत्मा ही है। ज्ञानी पुरुष को सुख मिलने पर न हर्ष होता है, न दुःख मिलने पर शोक । दोनों अवस्थाओं में उनका समभाव होता है। सुख होने पर वे सोचते हैं-इसमें क्या है! यह कितने दिन का है! दुःख मिलने पर वे सोचते हैं-यह तो हमारी ही किसी पिछली भूल का परिणाम है। ऐसा विचार करने वाले सम्यग्दृष्टि होते हैं। नरक जैसे स्थान में भी सम्यग्दृष्टि होते हैं। वे आजीवन सम्यक्त्व का पालन करते हैं। हे मनुष्यों! तुम्हें तो सभी प्रकार की सुविधाएं हैं। तुम्हें अपने सम्यक्त्व-रत्न की अवश्य रक्षा करनी चाहिए।
तदनत्तर गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! सम्यग्दर्शन वाले नारकी जीव क्रोधी हैं, मानी हैं, मायी हैं या लोभी हैं?
भगवान ने उत्तर फरमाया-हे गौतम! चारों प्रकार के हैं।
यहां यह आशंका की जा सकती है कि जब सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही क्रोधी, मानी, मायी और लोभी हैं, तो दोनों में अन्तर ही क्या रहा? इसका समाधान यह है कि कषाय दो प्रकार की है-देशघाती और सर्वघाती। मिथ्यादृष्टि में सर्वघाती अर्थात् सम्यक्त्वनाशिनी (अनन्तानुबंधी) कषाय का सद्भाव होता है और सम्यग्दृष्टि में देशघाती अर्थात् चारित्रनाशक कषाय होती है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के संबंध में पहले किंचित् कहा गया है। दोनों का भेद समझने के लिए एक और उदाहरण लीजिए :
एक आदमी लोहे के फाटक में बन्द है। यद्यपि उसमें आदमी है अवश्य, मगर न वह किसी को दीखता है, न वही किसी को देखता है। लेकिन अगर लोहे के फाटक के स्थान पर कांच का फाटक लगा दिया जाय तो दीखने और देखने में बाधा न होगी। यद्यपि फाटक दोनों हैं, मगर दोनों में काफी अन्तर है। ऐसा ही अन्तर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों में है। मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी में ऐसा अज्ञान और विकार होता है कि वह मानों लोहे के काले फाटक में बंद है और न स्व को देखता हैं, न पर को देखता है। सम्यग्दृष्टि में भी विकार है मगर वह कांच के फाटक के समान समझिए। उस फाटक से उसे आत्मा और परमात्मा का स्वरूप देखने में अन्तराय नहीं होता। विकारों का फाटक लगा देने पर भी वह तत्त्व को अवश्य देखता है। अलबत्ता, ६६ श्री जवाहर किरणावली ।