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कहकर भ्रमवाद या संशयवाद क्यों न कहा जाय? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अनेकान्तवाद वस्तु को जिस समग्रता से देखता है, उसी समग्रता से अगर आप भी देखें तो जैनधर्म को भ्रमवाद कहने का भ्रम नहीं रह जायगा। हाथी को चाहे रस्सी जैसा कहो, चाहे खंभे जैसा कहो, हाथी दोनों प्रकार के कथनों में आता है। हाथी एक है लेकिन धर्म उसमें अनेक हैं। अनेक धर्म होने के कारण उसकी अनेक पदार्थों से तुलना की जा सकती है। बल्कि ऐसा करने पर ही हाथी का पूरा स्वरूप समझा जा सकता है।
कल्पना कीजिए, एक मनुष्य मकान के दूसरे मंजिल पर बैठा है। अब आप उसके संबंध में एक ही निर्णय दीजिए कि वह ऊपर बैठा है या नीचे बैठा है? वह पूर्व में बैठा है अथवा पश्चिम बैठा है? जब आप उसे ऊपर बैठा कहेंगे तो आपको अपेक्षा लगानी पड़ेगी। पहले मंजिल वालों की अपेक्षा वह ऊपर है, इस प्रकार की अपेक्षा किये बिना आपके कथन का ठीक अर्थ नहीं घटेगा; क्योंकि तीसरे मंजिल वालों की अपेक्षा वह नीचे बैठा है। अगर बिना अपेक्षा के ही आपने कह दिया तो तीसरे मंजिल वाले कहेंगे-आप असत्य कहते हैं; वह हमसे नीचे बैठा है। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं का आश्रय लेकर ही आप उक्त प्रश्न का सही उत्तर दे सकते हैं। यही बात दिशाओं संबंधी प्रश्न में है। किसी अपेक्षा से उसे पूर्व में मानना होगा, किसी अपेक्षा से पश्चिम, उत्तर या दक्षिण में। वह पूर्व वालों से पश्चिम में और पश्चिम वालों की अपेक्षा पूर्व में कहलायगा।
एक उदाहरण और लीजिए। एक ही किसी व्यक्ति को पिता कहें, पुत्र कहें या मामा कहें? इस प्रश्न का उत्तर देने में आपको अपेक्षा का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अगर आप बिना अपेक्षा के एक आदमी को पिता कहेंगे तो वह अपने पिता का भी पिता कहा जायगा। पुत्र कहेंगे तो अपने पुत्र का भी पुत्र कहलायेगा। हां, अगर आप एकान्तवाद के फेर में न पड़कर अपेक्षा का ख्याल करें तो सही उत्तर मिल जायेगा। वह व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है, अपने मामा की अपेक्षा भानजा है और भानजा की अपेक्षा मामा है। इस पर भी अगर आप कहें कि एक ही आदमी को पिता, पुत्र आदि कहना कैसे उचित कहा जा सकता है, तो लाचारी है। वस्तु का स्वरूप जैसा है, उसे वैसा ही समझना चाहिए। अनुभव, व्यवहार और तर्क जिसका एकमत से समर्थन करते हैं, उसे स्वीकार न करना विवेकशीलता का लक्षण नहीं है। ३८ श्री जवाहर किरणावली -