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मनाओ और जिसकी वह बही है, उस आत्मा का विनाश होने दो, यह उचित नहीं है।
हमारे आत्मा की बही (नध) तैयार करने में महात्माओं ने घोर परिश्रम किया है। शास्त्रों में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए बड़े परिश्रम से युक्तियां दी गई हैं, हेतु दिये गये हैं। इन शास्त्रों का आदर करो। उन्हें प्रमाणभूत मानो। मगर यह न करो कि शास्त्रों को ही लेकर बैठ जाओ और आत्मा को भूल जाओ। जैसे आप अपनी जाति के किसी भाई को कुव्यसन में पड़ा देखकर दुःखी होते हैं, इसी प्रकार भक्तजनों को मनुष्य मात्र पर प्रेम और दया का भाव होता है और इसीलिए कुव्यसनों में पड़े मनुष्य को देख कर वे कहते हैं-यह अपने मनुष्यजन्म की मिट्टी कर रहा है। इसीलिए करूणा से प्रेरित होकर वे यह उपदेश देते हैं कि उत्तम और दुर्लभ मानव-भव पाया है तो इसे वृथा मत गंवाओ। भाग्यशाली होकर भाग्यहीन मत बनो। मनुष्य होकर मनुष्यजीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त करो। जो ऐसा नहीं करते
और भोगोपभोगों में एवं महलों में, मकानों में मस्त रहते हैं, उन्हें एक दिन महल-मकान छोड़कर नारकावास का अतिथि बनना पड़ता है।
भगवान् ने यह बताया है कि रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में रहने वाले जीवों के स्थिति स्थान असंख्य हैं।
__ अब यह देखना है कि इन जीवों को नरक-स्थान में किसने रोक रक्खा है? एक अंग पर विश्वास हो जाने पर दूसरे अंग पर विश्वास करना बुद्धि का काम है।
गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में बसने वाले जघन्य स्थिति के जीव-जो जीव एक ही स्थिति में वर्तते हैं, उनमें क्रोध अधिक है, मान अधिक है, माया अधिक है या लोभ अधिक है? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं हे गौतम! वे सब जीव क्रोधी, मानी, मायी और लोभी हैं परन्तु कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि वे सब जीव क्रोधी ही क्रोधी हो जाते हैं। ऐसे समय में मान, माया और लोभ नहीं देखा जाता।
भगवान् ने नरक के जीवों को क्रोधी ही क्रोधी कहकर गति प्रत्यय का हिसाब लगाया है। जिसमें तमोगुण अधिक होगा, जो हल्की प्रकृति का होगा उसमें क्रोध ज्यादा मिलेगा, यह प्रत्यक्ष है। अतएव जहां ज्यादा क्रोध है वहीं नरक समझना चाहिए। नरक में क्रोध, परस्पर की लड़ाई और परस्पर की अशान्ति है। वहां के जीवों को आपस में मारामारी करना ही सूझता है; ३२ श्री जवाहर किरणावली