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एक ज्ञानी पुरुष किसी पर्वत पर बैठे थे। प्राचीन काल में जब कागज का चलन नहीं था, तो जो कुछ भी लिखा जाता था, ताड़पत्र पर ही लिखा जाता था। उन ज्ञानी पुरुष ने लिखा- 'घोड़ा कुत्ते के बराबर है । एक दिन आंधी आई वह पत्ता उड़कर पहाड़ से नीचे के एक ग्राम में किसी आदमी को मिला उसने उस पत्ते को पढ़ा और सोचा- ' ऐसा लिखने वाला कितना मूर्ख हैं। फिर एक बुद्धिमान ने भी उस पत्ते पर लिखे ज्ञानी के वाक्य को देखा । वह बुद्धिमान पुरुष केवल शब्दों का ही अर्थ करने वाला नहीं था। वह मस्तिष्क से विचार करने वाला था । उसने सोचा- अवश्य ही इस वाक्य के लिखने में कुछ रहस्य होना चाहिए। उसने सबसे कहा - इस पत्ते पर यह बात किसने लिखी है, इसका पता लगाना चाहिए। आखिरकार अनुमान किया गया कि आंधी में उड़ कर यह पत्ता पहाड़ से आया है तो उस पर रहने वाले ज्ञानी पुरुष ने यह वाक्य लिखा होगा। वह बुद्धिमान पुरुष पत्ता लेकर ज्ञानी के पास गया और उनसे पूछा- क्या आपने ही इस पत्ते पर यह वाक्य लिखा है ? ज्ञानी ने कहा हां, मैंने ही यह लिखा है ।
बुद्धिमान ने पूछा- क्या इस पत्ते पर लिखा वाक्य सही है ?
ज्ञानी ने कहा-यह आंख से तो सही है, मगर बुद्धि से सही नहीं है। जो कुछ अनुभव हुआ, वह लिखा है और वह स्थान के साथ सही भी है। यहां तुम किसी घोड़े को देखो तो मालूम होगा कि घोड़ा, कुत्ता-सा दिखाई देता है या नहीं?
इतने में ही पहाड़ के नीचे एक घोड़ा दिखलाई पड़ा । ज्ञानी पुरुष ने घोड़ा बतलाते हुए उन लोगों से पूछा- वह घोड़ा आपको कैसा नजर आ रहा है?
लोगों ने कहा- जी हां, वह तो कुत्ता सा दीख पड़ रहा है। ज्ञानी ने पूछा- क्या वह वास्तव में कुत्ता है ?
सब बोले-नहीं, कुत्ता तो नहीं है ।
ज्ञानी ने कहा- तो मेरी बात आंख और स्थान से सही है, हां, वह बुद्धि से अवश्य गलत है ।
मतलब यह है कि आत्मविचार की सचाई को प्रत्यक्ष के अभाव में झूठ ठहराना और आंखों देखी बात को ही सत्य मानना ठीक नहीं है । ऐसा करना भाव हिंसा है। सच्चे विचारों का नाश करना आत्महिंसा है।
शास्त्र कहते हैं, अभिमान का नाश होना ज्ञान का लक्षण है लेकिन गड़बड़ यह हो रही है कि अनेक लोग आज अभिमान को ही ज्ञान मान बैठे भगवती सूत्र व्याख्यान
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