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भगवती सूत्र श. १-इन्द्रभूतिजी की महानता
गौर वर्ण वाले थे। उग्गतवे-उग्र तपस्वी दित्ततवे-दिप्त तपस्वी तत्ततवे-तप्त तपस्वी महातवे-महा तपस्वी ओराले-उदार घोरे-घोर घोरगुणे-घोर गुण वाले घोरतवस्सी-घोर तपस्वी घोरबंभचेरवासी-घोर ब्रह्मचर्यवासो, उच्छूढसरीरे-शरीर संस्कार के त्यागी संखित्तविउल तेयलेस्से-दूरगामी होने से विपुल ऐसी तेजो लेश्या को शरीर में संक्षिप्त करके रखने वाले, चोहसपुथ्वी-चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चउणाणोवगए -चार ज्ञान को प्राप्त सव्वक्खरसण्णिवाई-सर्वाक्षरसन्निपाती थे। वे समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अदूरसामंते-न अति दूर न अतिसमीप उड्डंजाणू-ऊर्ध्वजानु अहोसिरे-अधःशिर-नीचे की तरफ मस्तक झुकाये हुए झाणकोट्ठोवगए-ध्यान रूप कोष्ठक में प्रविष्ट संजमेणं-संयम से और तवसा-तप से अप्पाणं-अपनी आत्मा को भावेमाणे-भावित करते हुए विहरइ-विचरते थे।
भावार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अर्थात् सब से बडे प्रथम शिष्य इन्द्रभूति अनगार थे। उनका गोत्र गौतम था। उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था। उनका संस्थान समचतुरस्त्र-समचौरस था। उनका संहनन-वज्र-ऋषभ-नाराच था। कसौटी पर खींची हुई सोने की रेखा के समान तथा कमल की केशर के समान वे गौर वर्ण थे। वे उग्र तपस्वी दिप्त तपस्वी, तप्त तपस्वी, महातपस्वी, उदार, कर्मशत्रुओं के लिए घोर, घोर गण वाले, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले, अतएव शरीरसंस्कार के त्यागी थे । दूर-दूर तक फैलने वाली विपुल तेजोलेश्या को उन्होंने अपने शरीर में संक्षिप्त कर रखी थी। वे चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय, इन चार ज्ञान के धारक थे और सर्वाक्षर सन्निपाती थे। वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न बहुत दूर और न बहुत नजदीक, उर्ध्वजानु और अधः शिर होकर अर्थात् दोनों घुटनों को खडे करके एवं शिर को कुछ नीचे की तरफ झुकाकर ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट हो कर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे।
. विवेचन-इन्द्रभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य थे, अतएव वे सब शिष्यों में बड़े थे। इसलिए उन्हे 'ज्येष्ठ अन्तेवासी' कहा गया है। उनका गोत्र निन्दित नहीं था अपितु बहुत उत्तम था। अतएव कहा गया है कि 'गोयमसगुत्ते' । अर्थात् उनका
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