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भगवती सूत्र तक ? वीरस्तुति
देहमुक्त होने के पश्चात् जिस स्थान पर जाकर भगवान् विराजमान होते हैं, वह स्थान कैसा है ? यह बात बताने के लिए सूत्रकार उस स्थान के विशेषण देते हैं - सब प्रकार की बाधाओं से रहित होने के कारण वह स्थान 'शिव' है । वहाँ स्वाभाविक और प्रयोगजन्य किसी भी प्रकार का हलन चलन न होने के कारण वह स्थान 'अचल' है । रोग के कारणभूत एवं आधारभूत शरीर और मन का वहां अभाव होने से वह स्थान 'अरुज' अर्थात् रोग रहित है । अनन्त पदार्थ विषयक ज्ञान स्वरूप होने से वह 'अनन्त' है क्षय रहित होने के कारण वह 'अक्षय' है । सर्व प्रकार की बाधा पीड़ा रहित होने के कारण 'अव्याबाध' हैं । कर्मों का सर्वथा क्षय करके वहां जाने वाले जीव फिर संसार में नहीं आते हैं इसलिए वह स्थान 'अपुनरावृत्ति' वाला है। ऐसे उत्तम नाम वाले 'सिद्धिगति' स्थान में जाने वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के बाहर 'गुणशिलक' उद्यान में पधारे ।
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शंका- मूलपाठ में 'संपाविउकामें शब्द आया है जिसकी संस्कृत छाया होती है'संप्राप्तु कामः' अर्थात् मोक्ष जाने की इच्छा वाले ।
यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि भगवान् तो राग-द्वेष रहित 'वीतरागी' होते हैं, तो उन्हें 'इच्छा' कैसे हो सकती है ?
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समाधान- यहाँ पर जो 'काम' शब्द आया है वह 'औपचारिक' है। किसी जीवादि पदार्थ में तद्नुकूल क्रिया देख कर उस बात का कथन करना 'उपचार' कहलाता है । जैसे तीर्थंकर भगवान् में दूसरे पुरुषों की अपेक्षा सिंहादि की तरह अतिशय शौर्यादि होने के कारण उन्हें 'पुरुष सिंह' कहा गया है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर भगवान् की समस्त क्रियाएं मोक्ष के अनुकूल हैं एवं उन्हें मोक्ष में पहुंचाने वाली हैं, इसलिए यहाँ 'काम' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ यह है कि भगवान् मोक्ष में जाने वाले हैं । भगवान् में किसी प्रकार की इच्छा और अभिलाषा नहीं होती । जैसा कि कहा है
" मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः "
अर्थात्-मुनियों में उत्तम तीर्थङ्कर भगवान् और अन्य केवली संसार और मोक्ष दोनों में नि:स्पृह ( अभिलाषा रहित) होते हैं ।
'जाव समोसरणं' शब्द से भगवान् के शरीर का शिखनख ( शिखा - चोटी से लेकर पैर के नखों तक के सारे) वर्णन से लेकर समवसरण तक का वर्णन जैसा उनवाई ( औपपातिक) सूत्र में किया गया है वैसा ही सारा वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए ।
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