________________
प्रस्तावना
"विजयनगर ( कर्णाटकदेश ) में पाया जाता है। दूसरो बाधा यह है कि श्रुतसागरसूरिने अपने गुरु विद्यानन्दिको देवेन्द्रकीतिका और देवेन्द्रकीर्तिको पद्मनन्दिका शिष्य और उत्तराधिकारी प्रकट किया है। जबकि वर्द्धमान मुनीन्द्रके 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' और हुम्बुच्चके शिलालेख (नं० ४६) में दूसरे विद्यानन्दिको प्रथम वादिविद्यानन्दका तनय-शिष्य तथा इन्हींका शिष्य देवेन्द्रकीतिको बतलाया है। इन दो बाधाओंसे सम्भव है कि उक्त दूसरे विद्यानन्द श्रुतसागरसूरिके गुरु न हों और श्रुतसागरसूरिके गुरु विद्यानन्द उनसे अलग ही हों। यदि यह सम्भावना ठीक हो तो कहना होगा कि तीन विद्यानन्दोंके अलावा चौथे विद्यानन्द भी हुए हैं, जो श्रुतसागरसूरिके गुरु, देवेन्द्रकीतिके शिष्य और पद्मनन्दिके प्रशिष्य थे और गुजरातके किसी स्थानपर भट्टारकपट्टपर प्रतिष्ठित थे। हमें यह भी सन्देह होता है कि दूसरे विद्यानन्दका उल्लेख भ्रान्त न हो, क्योंकि प्रथम विद्यानन्दकी तरह दूसरे विद्यानन्द मुनीश्वरका दशभक्त्यादि महाशास्त्र और हम्बुच्चके शिलालेखमें नामोल्लेखके सिवाय विशेष कथन कुछ भी नहीं किया गया है और इसलिये आश्चर्य नहीं कि प्रथम और दूसरे
१. 'स्वस्ति श्रीमूलसंघे भवदमरनुत: पद्मनन्दी मुनीन्द्रः, शिष्यो देवेन्द्रकीतिलं.
सदमलतया भूरिभट्टारकेज्यः । श्रीविद्यानन्दिदेवस्तदनु मनुजराजार्यपत्पद्मयुग्मस्तच्छिष्येणारचीदं श्रुतजलधिना शास्त्रमानन्दहेतुः ॥ ९६ ॥
--चन्दनषष्ठिकथा । २. ठीक होनेका एक पुष्ट प्रमाण भी है। वह यह कि श्रुतसागरसूरिके गुरु
विद्यानन्दिने, जिन्हें मुमुक्षु विद्यानन्दि भी कहा जाता है, अपने सुदर्शनचरितकी रचना गांधारपरी ( गुजरात ) में वहांके जिन मंदिरमें की है। जैसाकि उनके सुदर्शनचरितके निम्न दो प्रशस्तिपद्योंसे प्रकट है:गान्धारपुर्या जिननाथ चैत्ये छत्रध्वजाभूषितरम्यदेशे । कृतं चरित्र स्वपरोपकार-कृते पवित्र हि सुदर्शनस्य ॥ १०६ ।।
-उद्धृत जैनप्रशस्तिसंग्रह पृ० १२ । इससे ज्ञात होता है कि श्रुतसागरसूरिके गुरु और देवेन्द्रकोतिके शिष्य विद्यानन्दि गुजरातमें सम्भवतः सूरत या गांधारपुरी के, जिसे गांधारमहानगर भी कहा गया है ( श्रीप्रशस्तिसंग्रह द्वि० भा० पृ. १८, प्रति ७३ ), पट्टाधीश होंगे और इसलिये विद्यानन्दि उक्त दूसरे विद्यानन्दसे, जिनका अस्तित्व विजयनगर ( कर्नाटक देश ) में पाया जाता है, भिन्न सम्भवित हैं। -सम्पादक ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org