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लोभी होते अर्थपरायण
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हैं तो भौंरे भी उसे छोड़कर उड़ जाते हैं, जलते हुए वन को देखकर मृग वहाँ से भाग जाते हैं, निर्धन पुरुष को गणिका भी छोड़ देती है. मन्त्री लोग श्रीरहित राजा को छोड़ देते हैं। सभी लोग अपने-अपने मतलब से एक-दूसरे में रुचि लेते हैं। इस स्वार्थ प्रधान संसार में कौन किसका प्रिय है ?
स्वार्थ भावना में दूसरे की हानि नहीं दिखती। दो व्यापारी थे। एक था घी का व्यापारी और दूसरा था चमड़े का। वर्षाऋतु आने वाली थी। घी के व्यापारी की नीयत यह थी कि वर्षा होगी तो गायों-भैसों को चरने को खूब मिलेगा और दूध बहुत देंगी। मैं खूब पैसा कमाऊँगा । परन्तु चमड़े के व्यापारी की भावना यह थी कि वर्षा नहीं होगी तो ढोर मरेंगे और उनका चमड़ा मुझे मिलेगा, जिसे बेच कर मैं मालामाल हो जाऊँगा । बताइए, कितनी क्षुद्र स्वार्थभावना थी दोनों की। दोनों ही अपना-अपना स्वार्थ देखते थे !
लुब्ध मनुष्य का जीवन स्वार्थपरायण हो जाता है। संसार में जितने भी लोभपरायण लोग हुए हैं, वे अतिस्वार्थ में पड़कर अनेक अनर्थ करते देखे गये हैं। स्वार्थप्रधान संसार का शब्द चित्र देखिए
स्वारथ का है सब संसार। सूरीकान्ता ने निज पति को दे विषयुक्त आहार । स्वार्थ सिद्धि बिन देखो कैसा, कर दिया अत्याचार ? स्वारथ० ॥ कौणिक और औरंगजेब ने किया न सोच विचार ।
स्वार्थमग्न हो अपने पितु को दिया कैद में डार ॥ स्वारथ० ॥ सूरीकान्ता ने राज्यलोभ से प्रेरित होकर राजा प्रदेशी को जहर मिला हुआ भोजन दे दिया था। संसार के इतिहास में सम्राट कौणिक और बादशाह औरंगजेब पर स्वार्थमग्नता के कलंक का टीका है, दोनों ही बाहर से धर्मात्मा और प्रभु भक्त दिखाई देते थे, परन्तु अन्तर के अतिस्वार्थ रूपी विष ने उनका सारा ही जीवन विषाक्त और बदनाम बना दिया था ।
यों तो प्रत्येक मनुष्य में थोड़ा बहुत स्वार्थ होता है, परन्तु वह स्वार्थ जब मर्यादा का अतिक्रमण करके दूसरों के स्वार्थों को कुचल डालता है, जब वह दूसरों की हानि के आधार पर अपने स्वार्थ को सिद्ध करता है, या खुद का भी लाभ गँवाकर दूसरों को हानि पहुंचाता है, तब तो वह अतिलोभ प्रेरित महास्वार्थी कहलाता है। भर्तृहरि ने चार कोटि के स्वार्थी बताए हैं
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्य ये । सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ॥ तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये । ये तु घ्नति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥"
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