________________
२५६
आनन्द प्रवचन : भाग ८
है, वह हरदम इसी उधेड़बुन में रहता है कि मेरी बात कैसे रहे ? सारा जगत मेरा सेवक बनकर कैसे रहे ? अहं की पूजा से तो कदापि जगत मेरा सेवक नहीं बन सकता। इसीलिए कहा है कि अहंकारी सदा चिन्तातुर रहते हैं। क्यों और किस लिए ? इसलिए कि उनके अहं की पूर्ति कैसे हो? इसी उधेड़बुन में रात-दिन पड़े रहने से। अभिमानी : अहं की मार से विवश
ऐसे अभिमानी अहं की मार से इतने विवश हो जाते हैं, कि वे ऊर्ध्वगामी नहीं हो पाते । सचमुच अहं की मार इतनी दूरगामी होती है कि बड़े-बड़े साधक भी उससे मुक्त नहीं हो पाते।
आचार्य रजनीश ने अपने जीवन की एक घटना लिखी है—'मुझे एक साधनारत सन्त के सम्पर्क में आने का मौका मिला। बात के दौरान सन्त ने अनेक बार अहं भरे शब्दों में दोहराया-“मैंने लाखों की सम्पत्ति छोड़ी है और मेरा एक ऐश्वर्य सम्पन्न परिवार था ।" इस प्रकार उनके प्रत्येक शब्द में अहं झलकता था।'
__ "यों कई बार उनके मुंह से सुन लेने पर एक दिन मै उनसे पूछ ही बैठा"आपको साधु बने कितना समय हो गया ?"
'बीस वर्ष'-अहं की अकड़ में उत्तर मिला।
मैंने निर्भीकता से कहा- "इतना लम्बा समय होने पर भी आप हैं तो वहीं जहाँ पहले थे।"
'सो कैसे ?' मुनि झेंपे-से बोले । ___ मैंने कहा-"पहले आपके मन में यह अहं था कि मैं एक लक्षाधिपति हूँ। और अब यह अहं आपको दबोच रहा है कि मैंने लाखों की सम्पत्ति ठुकराई है। अहंभाव में क्या विशेष अन्तर आया ? मुनि तो मौन रहे, बोलते भी क्या ? अहं की मार से ही वे विवश थे।" इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने अनुभव की बात कह दी
"अहंकार की अगनि में दहत सकल संसार ।
तुलसी बार्च संतजन, केवल सांति - अधार ॥" अत्यधिक अहंभाव एवं घमण्ड की ग्रन्थि
अभिमानी मनुष्य के मन में जब घमण्ड का भाव आ जाता है, तब वह एक मिथ्या गर्व के अहंभाव से फूल उठता है। थोड़ी-सी सत्ता, शक्ति, पद या अधिकार पाकर वह अपने को दूसरों से बहुत ही ऊँचा मानने लगता है। अपने से गरीबों, शक्तिहीनों, पीड़ितों, मातहतों, दीनहीनों या वृक्षों-अशक्तों को वह मक्खी-मच्छर जैसा निरीह मानने लगता है। शक्ति अथवा जवानी के मद में आकर मनमानी करता है। यह दर्प या अहंभाव अस्वस्थ मस्तिष्क के चिह्न हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org