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और सहायता के बिना मनुष्य उन्नति नहीं कर पाता । अतः ऐसी अहंमन्यता सामाजिक भावनाओं में बाधक है । यह कहना निरा अज्ञान है कि मैं तो किसी की सहायता के बिना अपने पैरों आप खड़ा हुआ । यदि प्रारम्भ में - शैशवावस्था से उसे सहयोग से वंचित कर दिया जाता तो वह जीवित ही नहीं रह पाता, स्वयं सारा विकास कर ना तो बहुत दूर की बात है । किन्तु अहंकारी व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता । यह समाज के प्रति उसकी कृतघ्नता ही तो है ।
आनन्द प्रवचन : भाग ८
आसुरी वृत्ति का जन्मदाता
अहंकार शत्रु मनुष्य को साधारण मानवता से भी गिरा देता है । यह ज्योंज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों मनुष्य को पिशाच बना देता है । अहंकार आसुरी वृत्ति का प्रधान लक्ष्य हैं । अहंकार जितना अधिक गहरा होगा, उतनी ही गहरी आसुरी वृत्ति होगी । दुष्टता का जन्मदाता भी अहंकार को ही माना गया है। अपराधियों को दुष्कर्मों की प्रेरणा देने वाले तत्वों में अहंकार का स्थान प्रमुख है । चोर, डाकू, हत्यारे, लुटेरे आदि जो दूसरों को लूटते व हानि पहुँचाते हैं, उसके पीछे धन-लोभ की प्रेरणा कम होती है, अहंकार का हाथ ही अधिक होता है । यदि किसी भी उपाय से अपराधियों के मस्तिष्क से अहंकार का तत्व निकाला जा सका होता तो निःसन्देह वे अच्छे नागरिक या भले आदमी बन जाते ।
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यदि उनमें अहंभाव का
अहंकार की वृत्ति ही मनुष्य को मुख्यतया आततायी बना देती है । सिकन्दर, तैमूरलंग, नादिरशाह, औरंगजेब आदि जितने भी महत्वाकांक्षी आक्रामक हुए हैं, जिन्होंने अकारण ही, केवल राज्य विस्तार के लोभ से आक्रमण एवं अकारण नर संहार किया है वे अहंकार - अहंभाव से पीड़ित रहे हैं प्राधान्य होता तो वे अपनी शक्तियों को ऐसे कामों हित साधन होता । उनके अहंकार ने उन्हें उन कर्मों की वे इतिहास के काले पृष्ठों पर अंकित किये गये । क्या ही विजय से पहले अपने अहंभाव पर विजय प्राप्त करते । और नीति से प्राप्त कार्यों की प्रेरणा मानव बना देते ।
लगाते जिनसे जनता का प्रेरणा की, जिनके कारण
अच्छा होता वे संसारऐसे करने पर उन्हें धर्म अच्छे मानव या उत्कृष्ट
मिलती; जो उन्हें
ज्ञान-प्राप्ति में बाधक
अभिमान शत्रु आता है, तब विवेकबुद्धि कुण्ठित हो जाती है । उसे सूझता । नया ज्ञान पाने की जिज्ञासा भी
सूत्र में ज्ञानाभिमानी की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है
"बुद्धामोति य मनता, अंतर ते समाहिए ।"
समाधि से बहुत दूर हैं ।'
में
'अज्ञानवश अपने आपको 'हम ज्ञानी हैं, सब कुछ जानते हैं' ऐसा मानने वाले
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मनुष्य का ज्ञान लुप्त हो जाता है । उसकी अपने सिवाय और किसी का दुःख-दर्द नहीं समाप्त हो जाती है । सूत्रकृतांग नामक
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