Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 374
________________ ३६० और सहायता के बिना मनुष्य उन्नति नहीं कर पाता । अतः ऐसी अहंमन्यता सामाजिक भावनाओं में बाधक है । यह कहना निरा अज्ञान है कि मैं तो किसी की सहायता के बिना अपने पैरों आप खड़ा हुआ । यदि प्रारम्भ में - शैशवावस्था से उसे सहयोग से वंचित कर दिया जाता तो वह जीवित ही नहीं रह पाता, स्वयं सारा विकास कर ना तो बहुत दूर की बात है । किन्तु अहंकारी व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता । यह समाज के प्रति उसकी कृतघ्नता ही तो है । आनन्द प्रवचन : भाग ८ आसुरी वृत्ति का जन्मदाता अहंकार शत्रु मनुष्य को साधारण मानवता से भी गिरा देता है । यह ज्योंज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों मनुष्य को पिशाच बना देता है । अहंकार आसुरी वृत्ति का प्रधान लक्ष्य हैं । अहंकार जितना अधिक गहरा होगा, उतनी ही गहरी आसुरी वृत्ति होगी । दुष्टता का जन्मदाता भी अहंकार को ही माना गया है। अपराधियों को दुष्कर्मों की प्रेरणा देने वाले तत्वों में अहंकार का स्थान प्रमुख है । चोर, डाकू, हत्यारे, लुटेरे आदि जो दूसरों को लूटते व हानि पहुँचाते हैं, उसके पीछे धन-लोभ की प्रेरणा कम होती है, अहंकार का हाथ ही अधिक होता है । यदि किसी भी उपाय से अपराधियों के मस्तिष्क से अहंकार का तत्व निकाला जा सका होता तो निःसन्देह वे अच्छे नागरिक या भले आदमी बन जाते । I । यदि उनमें अहंभाव का अहंकार की वृत्ति ही मनुष्य को मुख्यतया आततायी बना देती है । सिकन्दर, तैमूरलंग, नादिरशाह, औरंगजेब आदि जितने भी महत्वाकांक्षी आक्रामक हुए हैं, जिन्होंने अकारण ही, केवल राज्य विस्तार के लोभ से आक्रमण एवं अकारण नर संहार किया है वे अहंकार - अहंभाव से पीड़ित रहे हैं प्राधान्य होता तो वे अपनी शक्तियों को ऐसे कामों हित साधन होता । उनके अहंकार ने उन्हें उन कर्मों की वे इतिहास के काले पृष्ठों पर अंकित किये गये । क्या ही विजय से पहले अपने अहंभाव पर विजय प्राप्त करते । और नीति से प्राप्त कार्यों की प्रेरणा मानव बना देते । लगाते जिनसे जनता का प्रेरणा की, जिनके कारण अच्छा होता वे संसारऐसे करने पर उन्हें धर्म अच्छे मानव या उत्कृष्ट मिलती; जो उन्हें ज्ञान-प्राप्ति में बाधक अभिमान शत्रु आता है, तब विवेकबुद्धि कुण्ठित हो जाती है । उसे सूझता । नया ज्ञान पाने की जिज्ञासा भी सूत्र में ज्ञानाभिमानी की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है "बुद्धामोति य मनता, अंतर ते समाहिए ।" समाधि से बहुत दूर हैं ।' में 'अज्ञानवश अपने आपको 'हम ज्ञानी हैं, सब कुछ जानते हैं' ऐसा मानने वाले Jain Education International मनुष्य का ज्ञान लुप्त हो जाता है । उसकी अपने सिवाय और किसी का दुःख-दर्द नहीं समाप्त हो जाती है । सूत्रकृतांग नामक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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