Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 387
________________ १६ अप्रमाद : हितैषी मित्र धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके सामने ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ, जो हम सबके साधनामय जीवन का हितैषी मित्र है। साधनामय जीवन का क्षण-क्षण का वह प्रहरी है, हमारे साधनामय जीवन में सतत उसका हितैषी मित्र की तरह साथ रहना आवश्यक है। जिसे सामान्य या विशिष्ट किसी भी प्रकार की साधना करते समय एक मिनट के लिए भी भूला नहीं जा सकता, जो हमारे जीवन का साथी है, सुहृद है, हितैषी मित्र है। पद-पद पर हमें वारनिंग (चेतावनी) देता है, खतरे की घन्टी हमारे मनमस्तिष्क में बजा कर हमें सावधान करता है, वह है अप्रमाद । महर्षि गौतम ने इसे ही अठारहवें जीवन सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया है। वह सूत्र इस प्रकार है "कि हियमप्पमाओ" प्रश्न-हित-हितैषी मित्र कौन है ? उत्तर-अप्रमाद । अप्रमाद हमारे जीवन का हितैषी, सदा हित चाहने वाला, कल्याणकामी एवं जागृत रखने वाला मित्र है । अप्रमाद : एक सन्मित्र संसार में मित्र तो बहुत से होते हैं, परन्तु अधिकांश मित्र स्वार्थी, अस्थायी और दुर्व्यसनों में फंसानेवाले होते हैं, वे मित्र की अपेक्षा कुमित्र या शत्रु का काम ज्यादा करते हैं। परन्तु सच्चा मित्र स्वार्थी नहीं होता, वह दुःख और विपत्ति में सदा साथ रहता है, वह दुर्व्यसनों में नहीं धकेलता, बल्कि दुर्व्यसनों में फंसते हुए मित्र को निकालता है, दुर्व्यसन छुड़ा कर सन्मार्ग पर लगाता है, वह मित्र को पदे-पदे सावधान करता है। भर्तृहरि योगी ने नीतिशतक में सन्मित्र का लक्षण इस प्रकार दिया है पापानिवारयति योजयते हिताय गुह्य निगृहति, गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति, ददाति काले, सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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