Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 386
________________ ३७२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ __वृद्धा-"महाराज ! क्या गणधर प्रभु भी अपनी स्थापनाजी के चारों ओर ध्वजा लगाते थे ?" सुनते ही उपाध्यायाजी चौंके । सहमी नजर से बुढ़िया की ओर देखते रहे। तत्काल उन्हें अपनी विद्वत्ता के अहं का भान हुआ और चारों ध्वजाएँ तोड़कर फेंक दी। आचार्य भद्रबाहुंस्वामी से कामविजेता स्थूलिभद्रजी ने दो वस्तु कम दश पूर्वो का अध्ययन किया परन्तु उन्हें श्रुतमद हो गया। जब वे पाटलिपुत्र में थे, उनकी बहनें, जो साध्वी बन गई थीं, वन्दना करने आयीं, परन्तु बहनों को चमत्कार दिखाने के लिए वे सिंह का रूप धारण करके बैठे । बहनें डरकर वापिस लौंटी, किन्तु आचार्य श्री के समझाने से पुनः बन्दन करने गईं, तब वे अपने मूल रूप में थे। इसके बाद आचार्यश्री ने बहुत विनती करने के बावजूद भी उन्हें आगे के पूर्वो की अर्थ सहित बाचना नहीं दी। श्रुतमद करने से ही स्थूलिभद्रजी आगे के शास्त्राध्ययन के अयोग्य सच है कैसा भी मद हो, सभी शत्रुवत् त्याज्य हैं। अहंकार किसी भी प्रकार का हो उपादेय नहीं है। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा है - माणो अरी कि? संसार में आपका, मानव का, जीव मात्र का कोई शत्रु है तो वह हैअहंकार ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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