Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 417
________________ माया : भय की खान ४०३ की श्रीमती और कान्तिमती नामक दो पुत्रियों के रूप में जन्म लिया। क्रमशः किशोरावस्था पार करके सभी यौवन-अवस्था में आए । ___ एक दिन किसी कार्यवश अशोकदत्त सेठ गजपुर आए। वहां उन्होंने रूपवती सर्वांग सुन्दरी को देख कर पूछा- "यह किसकी लड़की है ?" उत्तर मिला-शंख श्रावक की है। इस प्रकार सर्वांग सुन्दरी के नाम, गुण आदि के विषय में जानकर अपने पुत्र समुद्रदत्त के लिए शंख सेठ से उसे मांग ली । शंख सेठ ने स्वीकार किया और शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया। एक दिन समुद्रदत्त अपने ससुराल पहुँचा। ससुराल वालों ने उसकी खूब आवभगत की। परन्तु जिस समय वासघर में वह शयन करने जा रहा था, उस समय सर्वांगसुन्दरी के माया जनित पूर्वबद्ध कर्म उदय में आए जिससे उसके समीप कोई देववाणी हुई और किसी पुरुष की छाया दिखाई दी। इस पर से सर्वांगसुन्दरी के पति को उसके प्रति शंका हुई कि हो न हो, यह दुराचारिणी है । अतः सर्वांग सुन्दरी जब पास में आई, तब वह उससे बिलकुल बोला नहीं, न बैठने को कहा । फलतः बड़ी मुश्किल से जमीन पर रात बिताई। सबेरा होते ही ससुराल वालों से बिना पूछे ही उसने एक रमतेराम ब्राह्मण को कह कर समुद्रदत्त सीधा साकेतपुर पहुँच गया। फिर कोशलपुर निवासी नन्दन सेठ की बड़ी पुत्री श्रीमती (पूर्व जन्म की पत्नी) के साथ पाणिग्रहण किया। उसके छोटे भाई ने उसकी छोटी बहन कान्तिमती (पूर्व जन्म की पत्नी) के साथ विवाह किया । सर्वांग सुन्दरी को जब इन बातों का पता लगा तो वह अत्यन्त दुःखी हुई । उसका ससुराल जाना-आना भी बन्द हो गया। अतः सर्वांगसुन्दरी ने अपना चित्त धर्म ध्यान की ओर मोड़ लिया। किसी साध्वी जी के पास उसने भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार अपनी गुरुणी के साथ विचरण करती हुई साध्वी सर्वांगसुन्दरी साकेतपुर गई है। वहाँ पूर्वजन्म के दोनों भाइयों के यहाँ भिक्षा के लिए गयी तो देखा कि उपशान्त चित्त वाली दोनों भौजाइयाँ तो श्राविका बन गई हैं, दोनों भाई अभी धर्म पथ पर आये नहीं हैं। एक दिन आर्या सर्वांगसुन्दरी पारणा होने से वहाँ गोचरी गयी। उसी अवसर पर दूसरा मायाबद्ध कर्म उदय में आया। बात यों बनी कि श्रीमती अपने वासघर में बैठी हार पिरो रही थी। साध्वी जी को आई देखकर वह हार छोड़कर बीच में ही उसी ओर उन्हें भिक्षा देने के लिए रसोई घर में गयी। इसी बीच एक चित्रामण मोर आया और उस हार को निगल गया। साध्वीजी खड़ी-खड़ी यह देख रही थी। अतः श्रीमती एक थाली में आहार लेकर उन्हें देने आयी, उसे लेकर साध्वीजी वहाँ से चल दीं। परन्तु श्रीमती ने जब हार पिरोने के लिए टटोला तो वहाँ मिला नहीं। आश्चर्यपूर्वक अपने परिवार वालों से सबसे पूछा, उन्होंने कहा- "उन साध्वीजी के सिवाय अभी और तो कोई आया नहीं था।" इस पर श्रीमती ने सबको डांटा-"आप सब क्या कहती हो ? क्या साध्वीजी कभी हार उठा सकती हैं।" परन्तु और कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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