Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 416
________________ ४०२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ . वसन्तपुर निवासी धनपति और धनावह इन दोनों भाइयों की एक बालविधवा बहन थी-धनश्री। जब से धर्म-घोष आचार्य नगर में पधारे, तब से उनका उपदेश सुन कर वह संसार से विरक्त हो गई थी। धनश्री ने अपने भाइयों से दीक्षा की अनुमति मांगी, पर उन्होंने बहन के प्रति सांसारिक स्नेहवश अनुमति न दी। किन्तु धनश्री धर्म कार्य में प्रचुर धन व्यय करती थी, इस कारण उसकी भोजाइयाँ बहुत ही चखचख करती थीं। यह देख कर धनश्री ने सोचा-भौजाइयों से मुझे क्या मतलब है ? भाइयों का मेरे प्रति कैसा अनुराग है ? यह देखू ।" एक दिन वह मन ही मन मायामय आयोजन करके बडी भौजाई को सोते समय धर्मोपदेश देने लगी-"पर-पुरुष से अपने शील की रक्षा करनी चाहिए।" बड़ा भाई यह बात सुन कर सोचने लगा- "मेरी पत्नी दुराचारिणी मालूम होती है, तभी तो बहन इसे ऐसा उपदेश देती है।" उसने पत्नी के आते ही धमका कर घर से निकल जाने को कहा । बेचारी ने जैसे तैसे जमीन पर सोकर रात काटी। सबेरे उसे खिन्नचित्र देख कर ननंद धनश्री ने उदासी का कारण पूछा। उसने रोते हुए कहा"तुम्हारे भाई ने मुझे बिना ही अपराध के घर से निकल जाने को कहा है।" धनश्री ने कहा- "तुम धैर्य रखो। मैं सब ठीक कर दूंगी।" उसने भाई से पूछा तो उसने कहा- "मैंने तो दुःशीला होने की शंका से ऐसा किया है ।" धनश्री बोली- "क्या प्रमाण है, आपके पास ? मैंने तो धर्मोपदेश के रूप में ऐसा कहा था, उस पर से आपको झूठा बहम हो गया !" भाई ने अपनी भूल स्वीकार की और गलत फहमी से हुए इस दोष के लिए क्षमा मांगी। धनश्री ने सोचा-"बड़ा भाई तो मेरी सब बातें मान जाएगा।" __ इसके पश्चात् धनश्री ने उससे छोटे भाई के स्वभाव की भी परीक्षा इसी प्रकार की। खासतौर से भौजाई को धर्मोपदेश देते हुए कहा-"अपना हाथ वश में रखना चाहिए।" इस पर से छोटे भाई ने भी अपनी पत्नी को दोष युक्त समझ कर निकल जाने का कहा । धनश्री ने प्रातः इस भाभी को भी आश्वासन दिया और पहले की तरह इस भाई को मनाया । इसने भी अपनी भूल के लिए माफी मांगी। धनश्री ने इस पर से भी निष्कर्ष निकाला कि “यह भाई भी मेरी सब बातें ज्यों की त्यों मान जाएगा।" ___ इस प्रकार धनश्री ने मन में माया रख कर दोषारोपण जैसी शंका उपस्थित कर दी, इस कारण तीव्र कर्म बन्धन किया। उस पर तुर्रा यह कि धनश्री ने की हुई माया का आलोचन एवं प्रतिक्रमण नहीं किया और अपने दो भाइयों एवं दोनों भोजाइयों के साथ स्वयं ने साध्वी दीक्षा ले ली। ये पांचों चारित्र पालन करके देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके दो भाई साकेतपुर में अशोक दत्त श्रेष्ठी के दो पुत्र-समुद्रदत्त और वरदत्त के रूप में जन्मे। बहन का जीव गजपुर नगर में शंख श्रावक की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। अत्यन्त रूपवती होने से उसका नाम 'सर्वांग सुन्दरी' रखा गया। दोनों भोजाइयों के जीवों ने भी कोशलपुर के नन्दन श्रेष्ठी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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