Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 414
________________ ४०० आनन्द प्रवचन : भाग ८ जब दूसरे मित्र से दुराव, छिपाव रखता है, कपट का व्यवहार करने लगता है, दूसरे से वक्रता करता है तो उनके हृदय फट जाते हैं । उनके हृदय से मित्रता पलायित हो जाती है । मित्र जब दूसरे मित्र के साथ धोखा करता है, तब वह कपटी मित्र बन जाता है, वास्तविक मित्र नहीं । दो मित्र धनोपार्जन के लिए विदेश गए । वहाँ दोनों में एक को व्यापार में अच्छा लाभ हुआ, लेकिन दूसरे को खास लाभ नहीं हुआ । अतः उसने देश लौट जाना अच्छा समझा । उसने जब मित्र से कहा तो वह बोला- भाई ! मैं तो यहाँ व्यापार में इतना उलझा हूँ कि इस समय देश नहीं जा सकता । तुम जाओ तो यह कीमती लाल अपनी भाभी को दे देना । कहना - लाल कीमती है, इसे सम्भाल कर रखना । मैं भी कुछ समय बाद व्यापार समेट कर आ रहा हूँ ।" मित्र लाल लेकर स्वदेश को रवाना हुआ। रास्ते में उसके मन में बेईमानी आ गई । सोचा - मित्र ने अकेले में दिया है, देते समय किसी ने देखा नहीं है । कह दूंगा मैंने तो तुम्हारी पत्नी को दे दिया है ।" बस, यह निश्चय करके वह घर पहुँचा । मित्र की पत्नी के पास खबर देने नहीं पहुँचा तो वह स्वयं आई और पूछने लगी- " आप अकेले कैसे आए ? अपने मित्र को नहीं लाए ? वह बोला - " वह तो बड़ा लोभी है । इतना धन कमाया है, फिर भी लोभ छूटता नहीं ।" मित्र की पत्नी ने पूछा - "इतना कमाया है तो कुछ भेजा भी है ?" "अजी ! वह लोभी क्या भेजेगा ?" मित्र ने कहा । एक पाप को छिपाने के लिए और माया करनी पड़ी । मित्र पत्नी सन्तुष्ट होकर बैठ गई । सोचा"चलो, कुशल तो हैं । कुछ न भेजा तो न सही । आखिर आएँगे तो यहीं ।" कुछ समय पश्चात् वह अपना व्यवसाय समेट कर घर आया । पत्नी ने कहा - " कुशल तो रहे न ? मुझे तो एक दम भूल गए । मेरे लिए मित्र के साथ कुछ भी नहीं भेजा !" पति - ' भूल कैसे गया ? भूल जाता तो मित्र के साथ लाल क्यों भेजता ? " पत्नी - "कौन-सा लाल ? उन्होंने मुझे कोई लाल नहीं दिया, पूछा तो बोले- उन्होंने कुछ भी नहीं भेजा ।" पत्नी के मुंह से यह बात सुन कर वह समझ गया कि मित्र के मन में बेईमानी आ गई है । प्रातः काल वह मित्र के पास पहुँचा । कुशल प्रश्न के अनन्तर उसने पूछा - " मित्र ! मैंने जो लाल दिया था, वह कहाँ है ?” उसने कहा – “वह तो मैंने आते ही तुम्हारी पत्नी को दे दिया था ।" "वह तो कहती है, मुझे कुछ नहीं दिया ।" उसने कहा । मित्र बोला - "अजी ! वह झूठ बोलती है । स्त्रियों का क्या भरोसा ? न जाने उसने किसी को दे दिया होगा, या कहीं रखकर भूल गई होगी ।" इस प्रकार मित्र गरजने लगा कि " अपनी स्त्री को दोष देते नहीं, मुझे चोर बनाते हो ।" मित्र के ऐसे रंगढंग देख कर वह चुपचाप घर आ गया । शाम को ही हाकिम के पास पहुँचा और सारी घटना कह सुनाई । उन्होंने सारी पूछताछ की कि तुमने लाल किसके सामने दिया था ?" उसने कहा- "मैंने किसी के सामने नहीं दिया । मित्र समझ कर विश्वास कर लिया था ।" हाकिम ने आश्वासन दिया कि मैं तुम्हें लाल दिलाने की कोशिश करूँगा ।" इसके बाद हाकिम Jain Education International For Personal & Private Use Only --- www.jainelibrary.org

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