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शत्रु बड़ा है, अभिमान | ३७१ है कि बाह्य वैभव के अहंकार को प्रतिस्पर्धा की हर समय चिन्ता बनी रहती है, आध्यात्मिक वैभव में कोई चिन्ता नहीं, प्रतिस्पर्धा की । उसका अहंकार होता ही नहीं। .
सचमुच, ऐश्वर्यमद में मनुष्य को दूसरे से, या अपने बराबरी वाले से प्रतिस्पर्धा की चिन्ता रहती है ? भौतिक ऐश्वर्य की प्रतिस्पर्धा में जैसे दशार्णभद्र को इन्द्र के आगे हार खानी पड़ी, वैसे ही दूसरों को खानी पड़ सकती है ।
श्रुतमद के रूप में श्रुतमद भी मनुष्य का भयंकर शत्रु है । यह जिसके जीवन में आ जाता है. वह ज्ञान, शास्त्राध्ययन, विज्ञान, ध्यान साधना आदि में आगे नहीं बढ़ पाता । श्रुत का अर्थ यहाँ सम्यज्ञान, शास्त्रज्ञान, अध्यात्मविज्ञान, ध्यान-साधना आदि है। मनुष्य चाहे जितना पढ़-लिख जाय, चाहे वह अनेक शास्त्रों का अध्ययन करले, समस्त विद्याओं और दर्शनों में पारंगत हो जाए कि अगर ज्ञान के साथ अहंकार रूपी शत्रु घुस गया है, विनय लुप्त हो गया है, तो वह ज्ञान न तो अपने लिए कल्याणकारी होता है न दूसरों के लिए । वह ज्ञान केवल अहंकार की भूख मिटाने के लिए होता है । ज्ञान के मद का अनुभव भर्त हरि को बहुत ही कटु हुआ है
"यदा किंचिज्जोऽहं गज इव मदान्धः समभवम् तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । यदा किंचित् किंचित् बुधजन सकाशादवगतम्
तदा मूर्योऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥" --जब मैं थोड़ा-थोड़ा जानता था, तब हाथी की तरह मदान्ध बन गया था, तब मेरा मन 'मैं सर्वज्ञ हूँ' इस अभिमान से लिप्त हो गया था। जब मैंने विद्वानों की संगति से कुछ-कुछ जाना, तब मुझे भान हुआ कि मैं तो मूर्ख हूँ, और इस प्रकार मेरा ज्ञान का मद ज्वर की तरह उतर गया।
उपाध्याय यशोविजय जी उस युग के धुरन्धर विद्वानों में माने जाते थे। वे अनेक विषयों में पण्डित व कुशाग्रबुद्धि थे; प्रखरवक्ता भी थे। काशी में पण्डितों की सभा में भारी विजय प्राप्त करने से उन्हें 'न्यायविशारद' की पदवी मिली थी। संस्कृत में घण्टों धाराप्रवाह भाषण देते थे। परन्तु जब वे काशी से दिल्ली पधारे तब ज्ञान के अभिमान वश चार ध्वजाएँ रखते थे। एक दिन खूब धूमधाम से व्याख्यान हो रहा था । व्याख्यान के समय भी स्थापनाजी पर चार झंड़ियाँ रखी गई थी, जिसका मतलब था-'चारों दिशाओं में अपनी विद्वत्ता की सुयश पताका फहर रही है।' एक बूढ़ी श्राविका ने साहस करके पूछा-"महाराजश्री ! क्या गौतम स्वामी एवं सुधर्मास्वामी भी आप जैसे ही विद्वान थे ! उपाध्यायश्री ने कहा "मैं तो उनकी चरणरज भी नहीं हूँ। वे गणधर महाप्रभु हैं, मैं उनका तुच्छ सेवक हूँ।"
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