Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 383
________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३६६ विचार कर वह प्रभु के पास पहुँचा। प्रभु ने भी उसे कुछ समय प्रतीक्षा करने को कहा, परन्तु उनसे अनुरोध करके आग्रह पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली। बेला, तेला आदि तप करता, शास्त्राध्ययन करता एवं परिषह सहता हुआ प्रभु के साथ ग्रामनगर विचरण करने लगा। भोगावली कर्म के उदय से भोग की इच्छा तो उत्पन्न होती परन्तु वह हठपूर्वक उसे रोके रखता। तपस्या से शरीर सुखाने लगा, इन्द्रियविकारों से निवृत्त होने के लिए शमशान आदि में जाकर घोर आतापना लेता; फिर भी विषय-विकार बहुत जागता । फिर वह व्रतभंग के डर से शरीर बन्ध बांधने लगा, देवता ने वह बन्ध तोड़ डाला, तथा शस्त्र से आत्महत्या करने को प्रवृत्त हुआ, देव ने शस्त्र भी भोंथरे कर दिये । फिर जहर खाने लगा, देवता ने विष की मारकशक्ति खत्म कर दी, तब आग में जल मरने की ठानी, देवता ने अग्नि भी ठण्डी कर दी। फिर स्वयं पर्वत पर चढ़ कर ऊपर से झंपापात करने लगा, बीच में ही देवता ने उसे झेल लिया और कहा"मेरी बात मानो ! भोगावली कर्म फल भोगे बिना तीर्थकर सरीखे भी छुट नहीं सकते, तब तुम क्यों व्यर्थ विकल्प कर रहे हो ?" ___ यह सुन कर अकेला विचरण करता रहा । एक दिन बेले के तप के पारणे के लिए गोचरी करने निकला। अनायास ही एक वेश्या के यहाँ पहुँच कर 'धर्मलाभ' कहा । वेश्या ने कहा-यहाँ 'धर्मलाभ' की जरूरत नहीं है, 'अर्थ लाभ' चाहिए।" यह उपहास वचन सुन कर नंदीषेण ने सोचा-इसे मेरी उपलब्धियों का पता नहीं है । अतः इसे जरा परिचय देना, चाहिए।" तत्काल छप्पर से एक तिनका खींचा, अतः लब्धि के बल से रत्नों की वृष्टि हो गई। नन्दिषेण ने वेश्या से कहा- "हो गया न अर्थ लाभ ?' यों कह कर ज्यों ही आगे चलने लगे वेश्या ने दौड़ कर उन्हें बाहुपाश में जकड़ लिया, बोली-अब मैं नहीं जाने दूंगी। आप मुझे छोड़ कर जाएँगे तो मैं प्राणत्याग कर दूंगी। आप मेरे यहाँ रह कर विषय सुखों का आनन्द लीजिए।" भोगावली कर्मवश नन्दिषेण मुनिवेश छोड़ कर अब वेश्या के यहाँ रहने लगे। प्रतिज्ञा कर ली कि मैं प्रतिदिन १० व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर ही भोजन करूँगा।" एक दिन ६ व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर तैयार किये, पर दसवां कोई तैयार ही न होता था। इधर रसोई ठण्डी हो रही थी, वेश्या बार-बार भोजन करने की प्रार्थना कर रही थी। आखिर कोई भी दसवाँ पुरुष प्रतिबुद्ध न हुआ, अतः आज मैं ही दसवाँ पुरुष तैयार हो रहा हूँ। यों कह कर विलाप करती हुई वेश्या को छोड़ कर नन्दीषण ने पुनः वीर प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और शुद्ध संयम पालन किया। नन्दीषेण के जीवन में तपस्या एवं चारित्र का मद था, उसी से उसका पुनः पतन हुआ। ऐश्वर्यमद के रूप में ऐश्वर्यमद भी कम भयंकर नहीं है। यह जब आता है, तब बड़ों-बड़ों को ले डूबता है । ऐश्वर्य के अन्तर्गत धन, सम्पत्ति, जमीन, जायदाद, ठाठ-बाठ, नौकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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