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वृतान्त कहा, जिसे सुनकर अहंकार से उसकी भुजाएँ फड़क उठीं। वह सीधा हस्तिना - पुरस्थित दानशाला में पहुँचा, और जाकर वहाँ रखे सिंहासन पर बैठ गया । उसकी नजर पड़ते ही थान में रखी हुई दाढ़ें खीर बन गयीं, जिसे वह खाने लगा । नौकर चाकर उसे मारने दौड़े, पर सेवक मेघनाद विद्याधर ने उन्हें मार भगाया । सुभूम के खीर खाने की बात नौकरों ने परशुराम से जाकर कही । परशुराम ने सन्नद्ध होकर सुभूम पर परशु का प्रहार किया, परन्तु परशु का तेज नष्ट हो गया । सुभूम के था हाथ में लेते ही वह चक्र बन गया, उसने परशुराम का मस्तक काट डाला । फिर स्वयं उस राज्य का स्वामी बन गया ।
आनन्द प्रवचन : भाग ८
सुभूम ने भी अहंकारवश रोष से २१ बार पृथ्वी निर्ब्राह्मणी की। मेघनाद विद्याधर की पुत्री के साथ विवाह किया । क्रमशः ६ खण्ड साधे । चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । फिर अहंकारवश धातकी खण्ड के भी ६ खण्ड साधने का निश्चय किया । ६ खण्ड की ऋद्धि लेकर वह लवण समुद्र पर बिछाये हुए चर्म रत्न पर सदल बल बैठा । परन्तु चर्म रत्न के एक भी अधिष्ठायक देव ने उस चर्म रत्न को उठाया नहीं । इस कारण ६ खण्ड की ऋद्धि सहित सुभूम समुद्र में डूब कर मर गया और सातवें नरक का महमान बना । यह है— अहंकार शत्रु को पालने का फल !
तपोमद के रूप में
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अभिमान शत्रु तपस्वी के पास भी आ धमकता है । तपस्या के साथ संयम, इन्द्रिय-निग्रह आदि आभ्यन्तर तप भी तपस्वी जीवन में होते हैं । तपस्या से उसका शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा तेजस्वी बनते हैं, अनेक लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । फिर तपस्वी की प्रशंसा होती है, लोग उसकी जय-जयकार के नारे लगाते हैं, गाजे-बाजे के साथ उसका जुलूस निकालते हैं, तब हृदय में पोल देखकर अभिमान शत्रु आ घुसता है । अभिमान को अभिव्यक्त करने के लिए प्राय: ' तपस्वी के जीवन में क्रोध, कटुवाणी, दूसरे का अपमान 'श्राप' आक्रोश आदि आ जाते हैं । ये सब तपोमद के रूप हैं, जिनसे, तपस्वी साधक का निश्चित ही पतन हो जाता है । अतः तपोमद से भी बचना आवश्यक है ।
मगध सम्राट श्रेणिक का नन्दीषेण महावीर राजगृह पधारे, तब राजाश्रेणिक उनके दर्शनार्थ गये ।
लगा - "
- "मुनिवरों की संगति
भगवान् का उपदेश सुन कर नन्दिषेण ने संसार से विरक्त होकर बड़ी कठिनता से माता-पिता की आज्ञा ली और दीक्षा लेने को उद्यत हुआ, तभी आकाश में देववाणी हुई - "वन्त्स ! अकाल में ही तू चारित्र क्यों लेने जा रहा है ? अभी तेरे भोगावली-कर्म फल भोग बहुत बाकी हैं। अतः अभी कुछ समय गृहस्थ जीवन में ही रह | उन कर्मों के क्षय होने के बाद दीक्षा लेना ।" यह सुन कर नन्दिषेण सोचने रहते हुए भोग्य
में
कर्म फल मेरा क्या करेंगे ?” यों
नामक एक पुत्र था । एक बार भगवान नन्दीषेण आदि सभी राज परिवार के लोग
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