Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 382
________________ . ३६८ वृतान्त कहा, जिसे सुनकर अहंकार से उसकी भुजाएँ फड़क उठीं। वह सीधा हस्तिना - पुरस्थित दानशाला में पहुँचा, और जाकर वहाँ रखे सिंहासन पर बैठ गया । उसकी नजर पड़ते ही थान में रखी हुई दाढ़ें खीर बन गयीं, जिसे वह खाने लगा । नौकर चाकर उसे मारने दौड़े, पर सेवक मेघनाद विद्याधर ने उन्हें मार भगाया । सुभूम के खीर खाने की बात नौकरों ने परशुराम से जाकर कही । परशुराम ने सन्नद्ध होकर सुभूम पर परशु का प्रहार किया, परन्तु परशु का तेज नष्ट हो गया । सुभूम के था हाथ में लेते ही वह चक्र बन गया, उसने परशुराम का मस्तक काट डाला । फिर स्वयं उस राज्य का स्वामी बन गया । आनन्द प्रवचन : भाग ८ सुभूम ने भी अहंकारवश रोष से २१ बार पृथ्वी निर्ब्राह्मणी की। मेघनाद विद्याधर की पुत्री के साथ विवाह किया । क्रमशः ६ खण्ड साधे । चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । फिर अहंकारवश धातकी खण्ड के भी ६ खण्ड साधने का निश्चय किया । ६ खण्ड की ऋद्धि लेकर वह लवण समुद्र पर बिछाये हुए चर्म रत्न पर सदल बल बैठा । परन्तु चर्म रत्न के एक भी अधिष्ठायक देव ने उस चर्म रत्न को उठाया नहीं । इस कारण ६ खण्ड की ऋद्धि सहित सुभूम समुद्र में डूब कर मर गया और सातवें नरक का महमान बना । यह है— अहंकार शत्रु को पालने का फल ! तपोमद के रूप में के अभिमान शत्रु तपस्वी के पास भी आ धमकता है । तपस्या के साथ संयम, इन्द्रिय-निग्रह आदि आभ्यन्तर तप भी तपस्वी जीवन में होते हैं । तपस्या से उसका शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा तेजस्वी बनते हैं, अनेक लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । फिर तपस्वी की प्रशंसा होती है, लोग उसकी जय-जयकार के नारे लगाते हैं, गाजे-बाजे के साथ उसका जुलूस निकालते हैं, तब हृदय में पोल देखकर अभिमान शत्रु आ घुसता है । अभिमान को अभिव्यक्त करने के लिए प्राय: ' तपस्वी के जीवन में क्रोध, कटुवाणी, दूसरे का अपमान 'श्राप' आक्रोश आदि आ जाते हैं । ये सब तपोमद के रूप हैं, जिनसे, तपस्वी साधक का निश्चित ही पतन हो जाता है । अतः तपोमद से भी बचना आवश्यक है । मगध सम्राट श्रेणिक का नन्दीषेण महावीर राजगृह पधारे, तब राजाश्रेणिक उनके दर्शनार्थ गये । लगा - " - "मुनिवरों की संगति भगवान् का उपदेश सुन कर नन्दिषेण ने संसार से विरक्त होकर बड़ी कठिनता से माता-पिता की आज्ञा ली और दीक्षा लेने को उद्यत हुआ, तभी आकाश में देववाणी हुई - "वन्त्स ! अकाल में ही तू चारित्र क्यों लेने जा रहा है ? अभी तेरे भोगावली-कर्म फल भोग बहुत बाकी हैं। अतः अभी कुछ समय गृहस्थ जीवन में ही रह | उन कर्मों के क्षय होने के बाद दीक्षा लेना ।" यह सुन कर नन्दिषेण सोचने रहते हुए भोग्य में कर्म फल मेरा क्या करेंगे ?” यों नामक एक पुत्र था । एक बार भगवान नन्दीषेण आदि सभी राज परिवार के लोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420