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अप्रमाद : हितेषी मित्र
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अप्रमाद का विरोधी : प्रमादविरोधी इसके अतिरिक्त अप्रमाद का स्वरूप समझ लेने पर आपको यह विशेष प्रतीति हो जाएगी कि अप्रमाद साधक का सच्चा सहचर और सखा क्यों हैं ?
वास्तव में अप्रमाद प्रमाद के निषेधरूप अर्थ में है, परन्तु यह निषेध अन्य पदार्थों का निषेध नहीं है, जैसे कोई कहे कि अप्रमाद यानी जो प्रमाद न हो, तो पत्थर, पानी, मिट्टी, पेड़ आदि अप्रमाद हैं । ऐसा कहना और समझना गलत होगा। यहाँ निषेध तद्भिन्न और तत्सदृश अर्थ का सूचक-पर्युदास है, प्रसज्य नहीं । इसलिए प्रमाद से भिन्न-प्रमाद के सदृश कोई भावात्मक पदार्थ-अप्रमाद कहलाता है। अर्थात्-प्रमाद का विरोधी भाव अप्रमाद है। अतः अप्रमाद को समझने के लिए पहले प्रमाद और उसके विभिन्न रूपों का समझना आवश्यक है।
प्रमाद : आत्म-विस्मृति प्रमाद का एक अर्थ है-विस्मृति या भूल । मनुष्य घर की सामान्य वस्तु कहीं भूल जाता है, वह तो क्षम्य हो सकती है, क्योंकि वह वस्तु न मिले तो वह दूसरी खरीदकर ले आता है; परन्तु आत्मा को-अपने स्वरूप को साधक भूल जाए, यह तो बहुत बड़ी अक्षम्य भूल है। ऐसी भूल से तो साधना आगे चल ही नहीं सकती। जितनी भी साधनाएँ हैं, वे सब की सब जड़-चेतन के- आत्मा-अनात्मा के या जीव-अजीव के भेदविज्ञान पर आधारित हैं। अगर मनुष्य आत्मा का या अपना स्वरूप ही भूल जाए-और अजीव में ही रमण करने लगे, यानी अपनी आत्मा को, आत्मा के निजी गुणों तथा स्वभाव को ताक में रखकर बार-बार क्रोधादि विभावों को ही अपने मानने लगे या उनमें ही ग्रस्त हो जाए अथवा सांसारिक जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पर-पदार्थों को अपना स्वरूप मानने लगे तो उसकी साधना में प्रगति नहीं हो सकेगी। इसलिए आत्म-विस्तृति सबसे बड़ा प्रमाद है अथवा आत्मा भूल या गलती से किसी पर क्रोध या अभिमान करे, किसी वस्तु पर लोभ या आसक्ति करे, अथवा किसी के साथ छल-कपट करें तो वहाँ साधक की गलती या भूल समझी जाती है, यह भी प्रमाद है। कई बार मनुष्य अज्ञान या मोह या अहंकार के वशीभूत होकर अपने आपको भूलकर गलती से कुछ का कुछ समझने लगता है। जैसे कोई साधक अपने आपको धनिक, भारतीय, अमुक जाति का, अमुक प्रान्त का- अमुक भाषा वाला अथवा विद्वान या अविद्वान, ज्ञानी या अज्ञानी, दुबला या मोटा समझने लगे तो वास्तव में साधना की दृष्टि से यह प्रमाद है।
मनुष्य अपने आपको कैसे भूल जाता है ? इसके लिए एक व्यावहारिक दृष्टान्त लीजिए
मारवाड़ में खेताजी नाम का एक बनिया था। नदी के किनारे उसने खरबूजे की बाड़ी लगाई। बाड़ी के पास ही पेड़ के नीचे एक झोंपड़ी बना ली, जिसमें वह .. उठता-बैठता था । एक दिन खेताजी खरबूजे लेकर बाजार में बेचने गए। वापस
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