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माया : भय की खान
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उस वस्तु या जीवन को विनष्ट कर देती है, इसीलिए तो वह खतरनाक है, भयावह है।
मनुष्य इतना चकाचौंध हो जाता है कि उसे माया दिखती नहीं, परन्तु वह माया ही होती है, जो उसके जीवन को भयावह स्थिति में डाल देती है। इस दुनिया के बाजार में जगह-जगह माया का जाल बिछा हुआ है, माया मिश्रित पदार्थ सजे हुए हैं। प्रत्येक समझदार व्यक्ति को उससे सम्भल-सम्भलकर चलना चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र में इसीलिए साधक को सावधान किया गया है
"चरे पयाइं परिसंकमाणो
जं किंचि पासं इह मन्नमाणो ॥" साधक प्रत्येक कदम शंकित होता हआ फंक-फूंक कर रखे। वह सांसारिक और भौतिक आकर्षण की जिस किसी चीज को देखे, उसे पाश (बन्धन) मानकर चले । कवि अपनी सुरीली तान में सावधान करता है
दुनिया एक बाजार है, सौदे सब तैयार हैं, जी चाहे सो लीजिए, नहीं इन्कार है ॥ ध्र व ॥ दुनिया के बाजार में आके लाखों लोग ठगाए जी ॥ लाखों॥
ऐसी वस्तु लेना मित्र ! तू यहाँ-वहाँ सुख पाएजी॥दुनिया०॥ कवि का संकेत माया के जाल से सावधान रहने के लिए है। क्योंकि माया विचित्र-विचित्र वेष बनाकर आती है, प्रत्येक क्षेत्र में इसका निराबाध प्रवेश है । प्रत्येक क्षेत्र के लोग इसे अपना कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। परन्तु गौतम ऋषि कहते हैं-माया को अपनाने वाले लोग अपने ही जीवन को खतरे में डालते हैं । जब वे लोग माया के चक्कर में फंसकर दुःख पाते हैं तथा मानसिक क्लेश भी पाते हैं, तभी उन्हें माया की भयंकरता का ख्याल आता है, परन्तु तब सिवाय पश्चात्ताप एवं शर्म के और कुछ हो नहीं सकता। पाश्चात्य विचारक सी. साइमन्स (C. Simmens) भी इसी बात की पुष्टि करते हैं ----
“For the most part fraud in the end secures for its companions repentance and shame."
__ अधिकांश रूप में माया (छल-कपट) अन्त में अपने साथियों के रूप में पश्चात्ताप और लज्जा को सुरक्षित रखती है।
दुनिया को धोखाधड़ी कहा गया है। धोखा भी कितने धडल्ले से दिया जाता है, उसका एक नमूना देखिये । एक बाजीगर ने एक तोते को इस ढंग से पाठ पढ़ाया कि उससे जो कुछ भी पूछा जाय, उसका उत्तर उसके पास एक ही था-'अत्र कः संदेहः' इसमें क्या सन्देह है।'
एक दिन बाजीगर चौराहे के बीच में अपने तोते का परिचय देते हुए जोरजोर से कह रहा था-"यह शुकराज जो पर्दे में विराजमान है, देवस्वरूप है, वह
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