Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 399
________________ अप्रमाद : हितैषी मित्र ३८५. रहना कतई ठीक नहीं है, परन्तु जो व्यक्ति अधर्मी है, पापी है, अधर्म से युक्त आजीविका करता है, ऐसे व्यक्ति का सोये रहना, आलस्य में पड़े रहना ही अच्छा है। इस दृष्टि से जब हम वस्तु तत्व को तोलते हैं तो अधर्म, पाप, बुराइयों और अनिष्टों को बढ़ानेवाली या प्रोत्साहन देनेवाली प्रवृत्ति में पुरुषार्थ करना भी एक तरह से प्रमाद है, क्योंकि ऐसे गलत पुरुषार्थ के पीछे अशुभ अध्यवसाय, अशुभ भावनाएँ और कषाय एवं विषयासक्ति जैसे अधर्म लगे हुए हैं। इसलिए यहाँ प्रमाद का अर्थ लेना चाहिए-धर्म कार्य, आध्यात्मिक प्रवृत्ति अथवा शुभ कार्य, कर्तव्यनिष्ठा अथवा आत्महित के कार्यों में आलस्य, उपेक्षा, उदासीनता या टालमटूल करना प्रमाद है । आलस्य को नीतिकारों ने शत्रु बताया है "आलस्यो हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।" आलस्य मनुष्यों के शरीर में जमा हुआ, टिक कर बैठा हुआ महान शत्रु है। इस दृष्टि से प्रमाद भी मानव जीवन का महान शत्रु है, यह कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं। इसीलिए आलस्य रूप प्रमाद के विषय में एक विचारक ने कहा है __ "आलस्याद् बुद्धि मान्द्यञ्चालस्यात् कार्यवैक्लवम् । आलस्यादवनतिश्चैव, गौरवं तेन नश्यति ।" आलस्य से बुद्धि मन्द हो जाती है, आलस्य से कार्य बिगड़ता है, आलस्य से मनुष्य की अवनति होती है, तथा उससे मनुष्य का गौरव, प्रतिष्ठा और यश समाप्त हो जाता है । आलसी सांस लेता हुआ भी मुर्दा-सा है । वह राजकीय, धार्मिक, सामाजिक आदि सभी कार्यों में अयोग्य, अकुशल और अनधिकारी सिद्ध होता है । जो मनुष्य अपने आत्महित के कार्यों में प्रमाद करता है, घण्टों इधर-उधर की गप्पें मारता है, व्यसनों में समय बर्बाद करता है, ताश, शतरंज, जुआ आदि खेलने में अपना कीमती समय गँवा देता है, ढीले और हर सत्कार्य में सुस्त मनुष्यों का अपने आपके नाश के सिवाय कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। आलसी व्यक्ति के आत्म-प्रदेशों में, धर्माचरण का उत्साह नहीं होता। महात्मागाँधीजी के शब्दों में-'आलस्य एक प्रकार की हिंसा है।' आलस्य से तमाम विधाएँ नष्ट हो जाती हैं। योगवाशिष्ट (२/५/३०) में आलस्य के दुष्परिणाम बताते हुए कहा है "आलस्यं यदि न भवेज्जगत्यनर्थः को न स्याद् बहुधनको बहुश्रोतोवा । आलस्यादियमवनिः ससागरान्ता, सम्पूर्ण नरपशुभिनिर्धनैश्च ॥" "संसार में यदि आलस्य न होता तो कौन महाधनी व महाज्ञानी न बन जाता। आलस्य के कारण ही समुद्रपर्यन्त यह विस्तृत पृथ्वी नर-पशु मूों और दरिद्रों से भरी पड़ी है।" आलस्य अवगुणों का पिता, दरिद्रता की माँ, रोगों की धाम, और जीते जागते की कब्र है, यह समस्त बुराइयों की जड़ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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