Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 393
________________ अप्रमाद : हितैषी मित्र | ३७६ घर आई । आते ही क्रोध से भन्नाता हुआ सर्ग बोला-"क्या तुझे वहाँ शूली पर चढ़ा दिया था कि तू इतनी देर से आई है, मैं यहाँ भूखा मर रहा हूँ।" चन्दा भी दुःख से बेचैन थी, वह भी रोष में आकर बोली-"क्या तेरे हाथ टूट गये थे कि छोंके पर रखा हुआ भोजन भी उतारकर नहीं खा सका।" इस प्रकार दोनों ने वाचिक प्रमाद के कारण गलत वचन प्रयोग किया, जिससे निकृष्ट कर्म बन्ध गये। एक बार दोनों के अहोभाग्य से नगर में मानतुंग आचार्य पधारे। उनसे दोनों ने जैनधर्म का बोध प्राप्त करके श्रावक धर्म अंगीकार किया। दोनों ने चिरकाल तक श्रावक धर्म पालन करने के बाद वृद्धावस्था में शुभ परिणामों से चारित्र अंगीकार किया । अन्तिम समय में संलेखना करके समाधिमरणपूर्वक दोनों देवलोक में गये । वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके सर्ग के जीव ने ताम्रलिप्तिनगरी में कुमारदेव नामक सेठ के यहां झींजुआ नामक भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप में जन्म लिया। उसका नाम रखा गया-अरुणदेव ! इधर चन्दा के जीव ने भी देवलोक का आयुष्य पूर्ण करने पाडलापथनगर में जसादित्य सेठ की पत्नी ललुआ की कूख से कन्या रूप में जन्म लिया । उसका नाम रखा गया—'देयणी।' ____संयोग वश यौवन-अवस्था आने पर देयणी की सगाई अरुणदेव के साथ हुई। विवाह होने से पहले ही अरुणदेव ने व्यापार के लिए समुद्र मार्ग से परदेशगमन किया । वह महाकडाहद्वीप पहुँचा। वहाँ से वापस लौटते समय दुर्भाग्य से उसका जहाज टूट गया । अतः लकड़ी के एक तख्ते को अरुणदेव और महेश्वर दोनों ने पकड़ लिया । तख्ता तैरता-तैरता समुद्र के किनारे आया। समुद्रतट पर ही पाडलापथ का उद्यान था, दोनों वहाँ पहुंचे । महेश्वर ने कहा- "अरुणदेव ! तुम्हारा तो यहाँ ससुराल है, चलो न नगर में वहीं चलें।" अरुणदेव बोला-ऐसी दीन-हीन हालत में ससुराल जाना उचित नहीं है ।" महेश्वर ने कहा-"तो फिर तुम यहाँ देवालय में बैठो, मैं बाजार में जाकर कुछ खाने की सामग्री ले आऊँ ।” यों कहकर महेश्वर नगर में गया। पीछे अरुणदेव को रास्ते की थकान के कारण देवालय में नींद आ गई। .. यहीं इस अवसर पर देयणी के पूर्वकृत वाचिक प्रमाद (' तेरे हाथ टूट गये थे क्या ?") के कारण बन्धे हुए कठोर कर्म उदय में आए । देयणी भवन के उद्यान में थी । वहाँ चोर आए, और उन्होंने देयणी के हाथों में बहुमूल्य माणिक के दो कड़े देखे तो उनका जी ललचाया । उन्होंने आधे तो निकाल लिये, परन्तु बहुत ही कड़े थे, इस कारण पूरे न निकल सके । अतः चोर ने उसका मुंहबन्द करके छुरी से हाथ काट लिए और दोनों कड़े निकाल लिये। ज्यों ही वे कड़े लेकर भागने लगे, उद्यानपालक ने दख लिये, वह जोर से चिल्लाया। अतः तुरन्त कोतवाल आ गया। उसने चोर का पीछा किया । चोर भी दौड़ने से हाँफ गया, थक भी गया, सोचा कि अब आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा। अतः उसी देवालय में घुसा। वहाँ अरुणदेव सोया हुआ था, अतः चोर दोनों कड़े तथा छुरी उसके पास रखकर मन्दिर के शिखर में छिप गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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