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आनन्द प्रवचन : भाग ८
लेता है । अभिमानी व्यक्ति नामबरी के लिए, पदाधिकारी बनने के लिए बुरी तरह लालायित रहता है । इसके लिए वह अपने साथियों-सहयोगियों को गिराने, गुटबन्दी करने और नाना प्रकार की दुरभिसन्धि रचने में संलग्न रहता है । इस प्रकार अभिमान के कारण वह अनेकों शत्रु बना लेता है । उन्नति में अवरोध
अहंकार शत्रु हृदय में जब प्रविष्ट होता है, तब मनुष्य अपनी योग्यता अधिक बढ़ी चढ़ी मानने लगता है । उसकी बुद्धि दूसरों की अपेक्षा अधिक जानता है, वह दूसरों से आगे की बात सोच सकता है । इस प्रकार वह अपने विषय में दम्भपूर्ण अत्युक्तिमय धारणा बना लेता है । वह अपने
दूसरों की अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट है, वह
निर्णयों को दूसरों से कहीं उत्तम और फलदायक समझता है इस वृत्ति के नशे में मनुष्य मिथ्यादम्भ में डूबा रहता है । उसकी उन्नति और प्रगति वहीं ठप्प हो जाती है । वह जितना सीखा है, उससे आगे कोई नवीन बात नहीं सीखना चाहता । वह अपनी ज्ञान की पुरानी पूंजी, संचित अनुभूति और शिक्षा पर ही सन्तोष मान लेता है । वह प्रायः यह कह दिया करता है - " इसमें नई क्या ही इस बात को जानते थे । हमें पहले से ही ज्ञात था कि होने वाली है । यह क्या, हम तो अनेक व्यक्तियों और
बात है ? हम तो पहले से
अमुक बात अमुक रीति से संस्थाओं के विषय में जानते
हैं कि किस प्रकार घटनाक्रम चलने वाला है। संसार किस करवट बैठता है या उठता है, यह सब जानते हैं । हमसे क्या छिपा है ? हमसे कौन बड़ा है ? यह भी हम जानते हैं । हम उड़ती चिड़िया के पंख गिन सकते हैं। इस प्रकार की थोथी डींगे Fear, एक मोहक मद है । ऐसा मनुष्य कीर्ति के नशे में भरकर ऐसी मृग मरीचिका में फँस जाता है ।
पाप का मूल
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अभिमान को पाप का मूल कहा है। जो पतन की ओर मनुष्य को ले जाता है, वह पाप है । पाप शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होता है । अहंकार शत्रु से घिरे हुए मनुष्य की दशा कुछ इसी प्रकार की होती है । वह जो भी कार्य अहं से प्रेरित होकर करता है, वह पाप की ओर ही जाता है । जो पाप का मूल है, वह धर्म की ओर मनुष्य को कैसे ले जा सकता है, इसलिए अहंकार धर्मकार्य में बाधक है । अहंकार से प्रेरित होकर ही वह दान करता है, अहंकार वश ही वह शीलपालन करता है, अहंकार से फूला देने पर ही वह तप करता है । उसकी कीर्ति एवं यशोगाथा गाने पर ही वह किसी को कुछ सहयोग देता है । मतलब यह है कि अहंकारी की सभी प्रवृत्तियाँ प्रायः अहंकार मूलक होती हैं । अहंकार शुद्ध धर्म में बाधक है ।
अहंकार से प्रेरित गति तीव्र हो सकती है, पर कल्याणकारी नहीं । अहंकार से प्रेरित होकर आर्थिक क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति प्रायः शोषक स्वभाव के हो जाते
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