Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 370
________________ ३५६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ लक्ष्मी को, अनार्य सेवा शील को एवं काम लज्जा को नष्ट करता है, लेकिन अभिमान, तो समस्त गुणों का नाश कर देता है ।' अभिमान किस प्रकार मनुष्य के समस्त गुणों को दबा देता है, इसके लिए एक पौराणिक उदाहरण लीजिए एक बार देवों पर असुरों द्वारा आक्रमण होने की सम्भावना थी । असुर बहुत पराक्रमी और संगठित थे, जबकि देवों का पराक्रम असंयम के कारण शिथिल हो गया था और वे संगठित न थे । अतः देवराज इन्द्र ने मनुष्य लोक के संयमी इन्द्रिय विजयी राजा मुचकुन्द को देवसेना के संचालन का भार सौंपने का निश्चय किया । इस पर देवराज इन्द्र के समक्ष खड़े सहस्रों देवों ने एक स्वर से प्रश्न किया"देव सेना का संचालन एक मनुष्य को सौंप कर हमें अपयश का पात्र न बनाएं, देवराज ! क्या सम्पूर्ण देव लोक में एक भी देव ऐसा न रहा, जो देव सेना का सेनापतित्व कर सके ? क्या वस्तुतः हमें एक मनुष्य की अधीनता स्वीकार करनी होगी ?"" इन्द्र आहत स्वर में बोले - "हम विवश हैं, देवो ! प्रजापति ब्रह्मा की ऐसी ही इच्छा है। उनका कहना है कि असंयम में डूबे देवगण अपनी सामर्थ्य जब नष्ट कर डालते हैं तब उनकी रक्षा कोई मनुष्य ही कर सकता है । महाराज मुचकुन्द यद्यपि मनुष्य है, पर संयम और पराक्रम में उन्होंने देवों को भी पीछे छोड़ दिया है । इसलिए आज सारे मनुष्य लोक और देव लोक में उनके समान बलशाली एवं प्रतापी और कोई नहीं रहा । प्रजापति का कथन है कि संयमी और सदाचारी व्यक्ति मनुष्य तो क्या, देव, असुर सभी को परास्त कर सकता है । अतएव हम विवश हैं, उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने के सिवाय कोई चारा नहीं रहा । " दूसरे दिन असुरों के साथ युद्ध के लिए जब देव सेनाओं ने प्रस्थान किया तब महाराज मुचकुन्द उनका संचालन कर रहे थे । संयम और तप का अपूर्व तेज उनके मुखमण्डल पर चमक रहा था । मनुष्य शरीर होते हुए भी वे साक्षात् देव से लग रहे थे । प्रसन्नचित्त मुचकुन्द ने जब युद्ध प्रारम्भ में शंखध्वनि की, तो सारी दिशाएँ प्रकम्पित हो उठीं । असुरों का हृदय विदीर्ण करने वाला नाद सुन कर देवगण पुलकित हो उठे, उन्हें विजय की आशा बंध गई । एक महीने तक घनघोर युद्ध हुआ । असुरों की सेना को सम्राट मुकुन्द तितर-बितर कर दिया। बीसियों सेनापति असुरों ने बदल डाले पर सम्राट मुचकुन्द के पराक्रम के आगे एक भी न टिक सका । सबके पैर उखड़ गए । सारे संसार में एक स्वर गूंज रहा था - -धन्य है मुचकुन्द का संयम, इन्द्रिय विजय और शौर्य, जिसने देव-दानव दोनों को लज्जित करके रख दिया । इधर अपनी प्रशंसा सुनते-सुनते मुचकुन्द के हृदय में पनप रहे अहंकार शत्रु को देखा तो वे चिन्तित हो उठे । उन्होंने पुनः इन्द्र को बुलाकर कहा - "तात ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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