Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 377
________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३६३ जो अपने आपको ही अधिक मानता है; दूसरा कोई भी मुझ से बढ़कर नहीं है, इस प्रकार के अभिमान से वह अनेक जन्मों तक नीचकुल मैं पैदा होता है। कुलमद के रूप में कुल का अभिमान भी मनुष्य के लिए शत्रु का काम करता है। केवल उच्च कहलाने वाले कुल में पैदा होने से ही जीवन उन्नत नहीं होता, जीवन की उन्नति तो अपने शुद्ध पुरुषार्थ पर निर्भर है। कई लोग उच्चकुल में पैदा होकर भी चोरी, व्यभिचार, डकैती, मांसाहार, सुरा-पान, हत्या आदि करते हैं, क्या कुल उन्हें तार देगा या कर्मों के बन्धन से छुड़ा देगा ? अतः कुल का अभिमान करना व्यर्थ है । कुलाभिमान नीचकुल में ले जाता है ? भगवान-ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि भगवान् ऋषभदेव के पास मुनि धर्म में दीक्षित हुआ। स्थविरों से अंगशास्त्रों का अध्ययन किया। परन्तु ग्रीष्मकाल के ताप से अत्यन्त पीड़ित होकर मन में विचार करने लगा-इस कठोर साधुचर्या का पालन होना मुझ से कठिन है, परन्तु दीक्षा छोड़ कर घर जाना भी अच्छा नहीं, अतः एक नया त्रिदण्डी परिव्राजक पंथ निकाला। उसने यह कल्पना की-“साधु तो मन-वचन काया रूप त्रिदण्ड से विरत हैं, मैं पूर्णतया नहीं, अतः त्रिदण्ड के प्रतीक चिह्न रखूगा। साधु तो द्रव्य-भाव दोनों से मुण्डित हैं, केशलोच करते हैं, मैं ऐसा नहीं कर सकता, अतः मैं क्षुरमुण्डन कराऊँगा, शिखा रखूगा। साधु तो सूक्ष्म हिंसा से भी सर्वथा विरत हैं, मैं पूर्णतया विरत नहीं हूँ, इसलिए स्थूल हिंसा से विरत रहूँगा । साधु तो शान्त होने से शीतल रहते हैं, इसलिए वे चन्दनादि का लेप नहीं करते परन्तु मैं इतना शान्त नहीं, इसलिए चन्दनादि का लेप करूंगा। साधु शरीर मोह रहित होते हैं इसलिए उन्हें छत्र तथा उपानह की जरूरत नहीं, परन्तु मैं अभी मोह का सर्वथा त्याग नहीं कर सका, इसलिए मैं छत्र तथा उपानह रखूगा। साधु सर्वथा कषाय रहित हैं, मैं वैसा नहीं हूँ, अतः काषायवस्त्र रमूंगा। साधु तो स्नान से विरत हैं, परन्तु मैं परिमित जल से स्नान, पान करूंगा।" यों अपने मन से कल्पित परिव्राजकपथ अपना लिया। पर विचरण भगवान-ऋषभदेव के साथ-साथ ही करते थे। उनका नया वेष देख कर लोग धर्म के विषय में पूछते, तब वह भगवान-ऋषभदेव के श्रमण धर्म का ही उपदेश देता, और अनेक राजपुत्रों को प्रतिबोध देकर भगवान-ऋषभदेव के शिष्य बनाता । एक दिन भगवान् ऋषभदेव अयोध्या पधारे । मरीचि भी साथ ही था। भरतचक्री भगवान् को वन्दन करने आए; सहसा उन्होंने भगवान् से विनयपूर्वक पूछा"भगवन् ! आपकी धर्म परिषद् में ऐसा कोई जीव है, जो इस भरत क्षेत्र में इस चौबीसी में तीर्थंकर होगा ?" प्रभु ने फरमाया-"तुम्हारा पुत्र मरीचि है, जो इस चौबीसी में अन्तिम चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा तथा वह महाविदेह क्षेत्र में मूकानगरी में प्रिय मित्र नाम का चक्रवर्ती भी होगा एवं इसी भरत क्षेत्र में त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव भी होगा।" यह सुन कर भरत चक्रवर्ती हर्ष-मग्न होकर मरीचि के पास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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