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आनन्द प्रवचन : भाग ८
में लगता है, परन्तु शीघ्र ही उसका अभिमान चूर-चूर हो जाता है, इसीलिए कहा है-"अभिमानी का सिर नीचा।" वह किसी दिन पराभूत हुए बिना नहीं रहता है । पराभूत होने पर वह चिन्तित और शोकमग्न होता ही है।
. विधवा रोहिणी का पुत्र देवशर्मा अपनी वृद्ध माता को बिलखती छोड़कर घर से भाग निकला और तीर्थाटन करता हुआ नन्दिग्राम के एक मठ में जाकर तप करने लगा। एक दिन प्रातःकाल देवशर्मा ने स्नान करके अपना चीवर सूखने के लिए जमीन पर डाल दिया और वहीं आसन बिछाकर ध्यान मग्न हो गया। प्रात:कालीन सन्ध्या पूरी करके जैसे ही देवशर्मा उठा, उसने देखा कि एक कौआ और एक बगुला उसके चीवर को चोंच में दबा कर उड़े जा रहे हैं। उसके क्रोध का ठिकाना न रहा । उपलब्ध तान्त्रिक सिद्धियों के प्रभाव से उसने क्रोध पूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा । आँखों से अंगारे बरसने लगे। दोनों पक्षी जल कर वहीं खाक हो गए। देवशर्मा अपनी सिद्धि देखकर फूला नहीं समाया, मानो सारे भूमण्डल में उसके जैसा और कोई सिद्धि प्राप्त नहीं है ।
____ अहंकार से भरा देवशर्मा मठ की ओर चला, मार्ग में नन्दिग्राम पड़ता था । सोचा-चलो भिक्षा लेते चलें । अतः देवशर्मा ने एक गृहस्थ के द्वार पर आवाज लगाई-"भवति भिक्षां देहि ।" भीतर से आवाज तो आ रही थी, लेकिन कोई बाहर नहीं आ रहा था । देवशर्मा को इससे बड़ा क्रोध उमड़ा। उसने दो, तीन, चार बार आवाज लगाई, तब भीतर से आवाज आई-"स्वामीजी ! ठहरिये मैं साधना समाप्त होते ही आपको भिक्षा दूंगी। अहंकारी देवशर्मा का पारा गर्म हो गया"दुष्टे ! साधना कर रही है या हमारा परिहास ? जानती नहीं, इस अवज्ञा का परिणाम क्या आएगा ?"
संयत और गम्भीर स्वर भीतर से बाहर आया-"महात्मन् ! जानती हूँ आप शाप देना चाहेंगे, किन्तु मैं कोई कौआ और बगुला नहीं हूँ जो आपकी कोप दृष्टि से जलकर भस्म हो जाऊँगी। माँ को बिलखती छोड़कर अपनी मुक्ति चाहने वाले साधु ! आप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे।"
देव शर्मा की सिद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया । कुछ देर बाद जब गृहस्वामिनी भिक्षा देने के लिए घर से बाहर आई तो साश्चर्य पूछा-'भद्रे ! आप कौन-सी साधना करती हैं, जिससे बिना देखे ही आपने मेरे जीवन की घटनाएँ बता दी ?" गृहस्वामिनी ने कहा---मैं जिस गृहस्थ धर्म में हूँ उस धर्म की साधना वफा दारीपूर्वक कर्तव्यनिष्ठा के साथ करती हूँ; आप इसे सिद्धि कहना चाहें तो सिद्धि कह सकते हैं।" देवशर्मा का सिर लज्जा से अवनत हो गया। भिक्षा लिए बिना वह चुपचाप अपने घर की ओर चल पड़ा। सोचने लगा-मैंने न तो गृहस्थ धर्म की ही साधना की और न साधु-धर्म की ? दोनों से भ्रष्ट होकर मैं अपनी जरा-सी तान्त्रिक सिद्धि के पीछे दीवाना हो गया ।
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