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आनन्द प्रवचन : भाग ८
प्रकार की प्रतिस्पर्धा एवं अनुचित एवं अनैतिक उपायों से आगे बढ़ने की बढ़ा-चढ़ी नहीं होगी। हाँ ऐसी आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति उचित और स्वाभाविक तरीकों से तुच्छता से आगे बढ़कर महत्ता को प्राप्त करने का लक्ष्य रखेगा, साथ ही वह दूसरों की अपेक्षा अधिक विद्वान, परोपकारी, सेवाभावी, संयमी, सभ्य, सहिष्णु एवं धार्मिक बनने का पुरुषार्थ करेगा, पर दूसरों को गिरा कर या दूसरों को नीचा दिखाकर, दूसरों को बदनाम करके नहीं; क्योंकि ऐसा व्यक्ति न तो धन, यश और वासना से लुब्ध होगा। न इनके लिए लालायित होगा। वह तो महापुरुषों जैसे आदर्श उपस्थित करेगा। उसका नाम न चाहते हुए भी नररत्नों की श्रेणी में अंकित हो जाएगा। इसलिए ऐसी आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा की प्रेरणा तो अभीष्ट है, परन्तु आसुरी इच्छाओं की उत्तेजना पैदा करने वाली महत्त्वाकांक्षा अभीष्ट नहीं ।
वास्तव में देखा जाए तो असन्तोष का असुर ही तीन रूप बनाकर अपनी मायावी दुष्टता के साथ आपके सामने उपस्थित होता रहता है, और प्रेम तथा आनन्द के साथ जीवन यापन कर सकने वाली सहनशीलता में पलीता लगाता रहता है। इसीलिए आसुरी एवं अमर्यादित महेच्छाओं के मुख्य तीन रूप दुष्ट असन्तोष से उत्तेजित होकर जन-जीवन में प्रविष्ट होते हैं-वित्तषणा, पुत्रषणा और लोकैषणा। तीनों एषणाओं से बचने का उपाय
धन, सन्तान (कामवासना) और अहंता की लिप्सा जब अमर्यादित, उच्छखल एवं नीति-धर्मविरुद्ध हो उठती है, तभी उसे एषणा या लोभप्रेरित महेच्छा कहा जाता है। उचित प्रयत्न के साथ उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नैतिक तरीकों से उपार्जित धन गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक और नैतिक दृष्टि से समर्थनीय होता है। क्योंकि इसके बिना गृहस्थ के शरीर एवं परिवार का निर्वाह होना कठिन होता है। जिन लोगों ने गृहस्थ धर्म अपना लिया है, और विवाहित जीवनयापन कर रहे हैं, उनका उचित नैतिक मर्यादाओं के अनुरूप सिर्फ मर्यादा में सन्तानोत्पादन की दृष्टि रखकर कामोपभोग सेवन को शास्त्रकारों ने गृहस्थ के लिए अनुचित और अनैतिक नहीं बतलाया है । तथा शुभकार्य, दान, परोपकार एवं सेवा के कार्य करके एक सद्गृहस्थ समाज में अपना सम्मान स्थिर करे, जनता के हृदय में अपने प्रति श्रद्धा-भक्ति एवं आदर उत्पन्न करे, सदाचारपूर्ण उत्कृष्ट जीवन-यापन करके लोकश्रद्धा का भाजन बने, लोग उसकी प्रशंसा करे या उसकी प्रतिष्ठा करें, यह अनुचित नहीं है।
पर इन तीनों ही आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकना असंतोष और अधीरता से सम्भव नहीं है । धर्म मर्यादाएँ छोड़कर उच्छृखल रीति से इन तीनों-धन, कामोपभोग एवं यश-का अर्जित करना आसुरी महेच्छा-ऐषणा की कोटि में चला जाएगा। धन, कामोपभोग और यश की उचित और व्यवस्थित प्रगति तो विवेक और दूरदर्शिता के आधार पर ही सम्भव हो सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि धार्मिक सद्गृहस्थ
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