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क्रोध से बढ़कर विष नहीं ? ३१३ इन तीनों से वह चाहे तो अमृत बरसा करता है, चाहे तो विष । अमृत तो मनुष्य को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है, और विष वह संसार के वातावरण में रह कर ले लेता है। इस तरह मनुष्य के पास अमृत और विष दोनों ही हैं।
क्रोधी मन से क्रोध विष बरसाता है दूसरे व्यक्ति या प्राणी जब भी मनुष्य के सम्पर्क में आएँ या सम्पर्क में आते हों, तब वह यदि मन में क्रोध ले आए, मन में उसके प्रति रोष और द्वषपूर्वक विचार करे, मन में कठोरता और घृणा का भाव ले आए, दूसरी जिन्दगियों का कोई विचार न करे, अपने ही स्वार्थ और मतलब की दृष्टि से विचार करता है तो मन में आया हुआ वह क्रोध दूसरों के प्रति मन से जहर बरसाता है।
एक दूसरा व्यक्ति है, उसकी दृष्टि अमृतमयी है । वह सारे संसार के प्राणियों को आत्मवत् भाव से देखता है। उसके मन में दूसरे प्राणियों के या दूसरे मनुष्यों के प्रति दया, क्षमा, कोमलता और अहिंसा की भावना है, उसका विचार है. ये भी जीएँ मैं भी जीऊँ, अथवा इन्हें जलाकर जीऊँ, इनको जीने की प्राथमिकता देकर मैं अपना जीवन जीऊं, उनके द्वारा कभी अपकार किये जाने पर भी वह क्रोध न करके जीवों के स्वभाव का चिन्तन कर क्षमा या सहिष्णुता धारण करता है । ऐसा व्यक्ति दूसरों के प्रति मन से अमृत बरसाता है।
स्कन्धक श्रावस्ती नगरी के जितशत्रु राजा का इकलौता पुत्र था। एक उसकी बहन थी, जिसका नाम था पुरंदर यशा । कुम्भकार कटक नगर के राजा दण्डक के साथ उसकी शादी की गई। दण्डक राजा के यहाँ पालक नामक पुरोहित था, वह नास्तिकवादी था । एक बार किसी कार्यवश दण्डक राजा ने जितशत्रु राजा के यहाँ पालक को भेजा। पालक ने जितशत्रु की राजसभा में धर्मचर्चा के सिलसिले में अपनी नास्तिक विचारधारा का प्रतिपादन किया, किन्तु वहीं उपस्थित स्कन्धक राजकुमार ने जैनसिद्धान्त की दृष्टि से उस विचारधारा का युक्तिपूर्वक खण्डन किया, जिससे पालक को निरुत्तर होना पड़ा। अपने अहं को चोट लगने से पालक के अपने मन में स्कन्ध के कुमार के प्रति अत्यन्त क्रोध का विष घोल लिया। किन्तु वहाँ उसकी एक न चली । फलतः अपना काम निपटाकर वह वापस अपने नगर को लौटा।
एक बार विचरण करते-करते बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी का पदार्पण श्रावस्तीनगरी में हुआ। तीर्थंकर प्रभु की धर्म देशना सुनकर स्कन्ध कुमार को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने ५०० पुरुषों के साथ प्रभु से मुनिदीक्षा ली और उग्र विहार करने लगे। इसी दौरान उन्होंने जैन सिद्धान्तों का गहन अध्ययन किया। तीर्थंकर भगवान् ने स्कन्दक मुनि को योग्य जानकर ५०० साधुओं के आचार्य बना दिये।
एक दिन स्कन्दकाचार्य ने प्रभु के चरणों में सविनय निवेदन किया- "भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अपनी सांसारिक पक्ष के बहन-बहनोई-पुरन्दरयशा
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