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आनन्द प्रवचन : भाग ८
(११) क्रोध का परिणाम अन्ततः बुरा होता है, क्या यह कभी सोचा है ?
(१२) क्षमा मानसिक सन्तुलन या सहिष्णुता क्रोध के प्रसंग के समय रखी जा सकना सम्भव है ? क्या उसके लिए कभी प्रयत्न भी किया है ?
(१३) प्रयत्न या अभ्यास करने पर लक्ष्यांक तक या लक्ष्यांक से पहले कहाँ तक पहुँच पाया हूँ ? इसे नापने की प्रक्रिया यह है
(अ) प्रतिकूल वचन कहे तो क्रोध नहीं आता, (आ) दूर का आदमी कहे तो क्रोध नहीं आता। (इ) घर का या निकट का आदमी कहे तो भी क्रोध नहीं आता। (ई) अमुक-अमुक स्थिति में क्रोध नहीं आता । क्रोध से विषाक्त कीटाणुओं के निवारण का प्रयत्न
__डाक्टरों का कहना है कि दूध, पानी या तरल पदार्थों में रोगोत्पादक विषैले कीटाणुओं के होने का खतरा रहता है, अतः उन्हें उबाल (गर्म) करके पीया जाता है। उबालने पर उनमें किसी प्रकार के कीटाणुओं के होने का खतरा नहीं रहता वैसे ही अगर हमारे मन, वचन और काया में भी क्रोध के विषाक्त कीटाणु आ गए हों तो उन्हें पश्चात्ताप और प्रायश्चित रूप परिताप की आग में उबालकर मिटा देने चाहिए। क्रोध के विचार आ गए हों तो उनके लिए पश्चात्ताप के साथ ही प्रायश्चित-तप रूप परिताप करना चाहिए, ताकि वे विचार जड़मूल से ही समाप्त हो जाएँ। अगर क्रोधादि के विचारों को पपोलते रहेंगे, उनका मुलाहजा रखेंगे, उन्हें बार-बार स्थान देंगे तो फिर वे आपके जीवन में डेरा जमा लेंगे।
रमणलाल नाम का एक युवक था। वह बहुत ही क्रोधी था। बात-बात में क्रोध करना उसका स्वभाव बन गया था। पत्नी के बार-बार प्रेरणा देने पर एक दिन वह एक संत के प्रवचन में पहुँचा। संत ने अपने प्रवचन में क्रोध के दुर्गुण के विषय में बोलते हुए कहा-"क्रोध बहुत ही बुरा है, अत्यन्त हानिकारक है, जन्म-जन्मान्तर तक वैर की परम्परा बढ़ाता है, यह मनुष्य के जीवन में विष घोल देता है, बुरे संस्कार जमा देता है, आदि।" रमणलाल को अपने क्रोधी स्वभाव से घृणा हो गई थी, वह ऊब चुका था, अपनी क्रोधी प्रकृति से, उसने सोचा-संत ने जो कुछ कहा है, वह हूब-हू मेरे पर ही घटित होता है । मुझ में ऐसा ही भयंकर क्रोध है। जब मुझे क्रोध चढ़ता है, तब मैं अपने बच्चों, पत्नी, माता या मित्रों पर उतारता हूँ। जब वह नशा उतर जाता है, तब पछताता हूँ; रोता हूँ पर मैंने आज तक इसके निवारण का उपाय ढूंढ़ने का प्रयत्न नहीं किया। इसीकारण तो मेरा क्रोध उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है । निमित्त न मिले, वहाँ तक तो मैं बड़ा सयाना, समझदार, एवं शान्तिप्रिय दिखाई देता हूँ; किन्तु निमित्त मिलते ही मेरी सारी समझदारी, सयानापन एवं शान्ति-प्रियता काफूर हो जाती है । उस समय क्रोध दुगुने जोर से उछलता है।" इस प्रकार रमणलाल पश्चात्ताप करने लगा। रोग से हैरान होने पर ही रोगी इलाज करता है। इसमें भी क्रोध रोग का इलाज कराने की रुचि जागी। अत्यन्त जिज्ञासा
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