Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 365
________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३५१ - अहंकार या अभिमान इसीप्रकार का एक शत्रु है, जिससे हमें सावधान रहना है। हम चाहे कितने ही उच्च साधक हो गए हों, चाहे ११वें गुणस्थान तक पहुंच गए हों, फिर भी गफलत में नहीं रहना है। अभिमानरूपी शत्रु जब आता है तो साथ में क्रोध, माया, लोभ, मोह, दम्भ, द्रोह, स्वार्थ, द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, मद, हिंसा, अविनय, असत्य आदि दलबल के साथ आता है। जहाँ अभिमान आता है, वहाँ अहं के चोट लगने पर क्रोध तो आ ही जाता है। जहाँ दूसरे के प्रति क्रोध आया, वहाँ द्वष भी आ पहुँचता है। अपने अभिमान की भूख मिटाने के लिए मनुष्य लोभ को आमन्त्रण दे ही देता है। साथ ही अपनी कुटिलता, अपनी वंचना या मेरे-तेरे के भाव को छिपाने के लिए माया भी आ धमकती है। इसीलिए (आचारांग) शास्त्रकार कहते हैं ___ 'जे माणदंसी से मायादंसी' जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी भी होता है। अर्थात्-जहाँ अभिमान महाराज का पदार्पण होता है, वहाँ मायारानी तो आ ही जाती है। इसी प्रकार जहाँ अभिमान आता है, वहाँ ज्ञान और विवेक के नेत्र बन्द हो जाते हैं, इसलिए मोह महाराज तो उसकी सेना के नायक बन कर आ ही जाते हैं। आचारांग सूत्र (५/४) में स्पष्ट कहा है उन्नयमाणे य नरे महामोहे पमुज्नई अभिमान करता हुआ मनुष्य महामोह से प्रमुग्ध (विवेकमूढ़) हो जाता है । पाश्चात्य विचारक Dillon (डिल्लन) ने भी यही बात कही है 'Pride, the most dangerous of all faults, proceeds from want of sense, or want of thought.' · अभिमान, जो कि तमाम अपराधों में खतरनाक अपराध है, ज्ञान की कमी या विचार की कमी से आगे बढ़ता है । इसी प्रकार जहाँ अहंकार आ जाता है, वहाँ मनुष्य अपनी बात चाहे झूठी या अहितकर भी हो उसे रखने के लिए दम्भ और द्रोह भी करता है। जहाँ अभिमान आता है, वहाँ मनुष्य 'स्व', मैं और मेरे में बन्द हो जाता है, अपना माना हुआ धर्मसम्प्रदाय, जाति, कुल, बल, तप, धन, परिवार, स्वार्थ, विचार, मत आदि का आग्रह, कभी-कभी अभिमान के कारण कदाग्रह का रूप ले लेते हैं । परम्पराओं और मान्यताओं का पूर्वाग्रह भी अभिमान के कारण होता है। "Pride is a vice, which pride itself inclines every man to find in others, and to overlook in himself.” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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