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पाते नरक, लुब्ध लालची
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अपनी वर्तमान स्थिति पर सन्तोष अनुभव करता हुआ मन को प्रसन्नता से, आशा से, उत्साह और धर्मानुराग से परिपूर्ण रखे, जिससे प्रगति का कठिन और उतार-चढ़ाव का मार्ग पार करते हुए दिनानुदिन ऊँचा उठ सकने की स्थिति को प्राप्त कर सके। असन्तुष्ट व्यक्ति तो उन्मत्त-सा होता है, वह स्वयं परेशान रहता है, और दूसरों को परेशान करता है। वह परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालने का तथा परिस्थितियों को भी अपने अनुरूप बनाने का प्रयत्न नहीं करता। इसलिए वह आसुरी महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त होकर संसार को स्वर्गापम बनाने की अपेक्षा नरकोपम बना देता है। उसके मन-वचन-काया नारकीय जीवन के परमाणुओं से ओतप्रोत हो जाते हैं । वह बड़ा आदमी बनने की महत्त्वाकांक्षा में इस संसार के लिए अत्यधिक हानिकारक सिद्ध होता है । आततायी एवं उपद्रवकारियों की तरह वह दूसरों को शोषित, पददलित और पीड़ित करते हुए उनकी लाशों पर चढ़कर ही बड़ा बन पाता है। समाज का सन्तुलन ऐसे आसुरी महत्त्वाकांक्षियों ने ही बिगाड़ा है और बिगाड़ते हैं। इसलिए इन मानसिक रोगियों से ऐसे ही सतर्क रहना चाहिए, जैसे ईंट-पत्थर मारने वाले पागलों से बचा जाता है ।
प्रत्येक धर्मशास्त्र में इन भौतिक विभूतियों की पापवर्द्धक एषणाओं से सदा बचे रहने का विधान किया गया है। उसे रोकने और नियन्त्रित रखने के लिए पदपद पर उपदेश दिया गया है। इसलिए प्रत्येक सद्गृहस्थ को इन तीनों एषणाओं से बचते हुए शान्ति, प्रेम, आनन्द, उल्लास, धैर्य एवं सन्तोष के साथ नैतिक जीवन व्यतीत करने की इच्छा करनी चाहिए। एषणाओं की पूर्ति न होने के असन्तोष से तो आज तक कोई तृप्त नहीं हो सका है। योगशास्त्र में उदाहरण देकर इसे समझाया गया है
तप्तो न पुत्रैः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनैः।
न धान्यस्तिलकः श्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करैः॥ चक्रवर्ती 'सगर' साठ हजार पुत्र पाकर भी सन्तोष न पा सका, कुचि कर्ण बहुत-से गोधन से भी तृप्त न हो सका, तिलक श्रेष्ठी प्रचुर धान्यसंग्रह करके भी सन्तुष्ट न हुआ और नन्दराजा सोने के ढेरों से भी शान्ति न पा सका।
वित्तषणा का प्रकोप वित्तषणा का अर्थ है-संसार के धन, धान्य, सुख-साधन और वैभव से सम्बन्धित पदार्थों का अनैतिक एवं अमर्यादित रूप से इकट्ठा करने या अर्जित करने की आसुरी महेच्छा-तृष्णा।
आज दुनिया में धन की गरीबी इतनी नहीं है, जितनी मन की है। मनुष्य अनेकों वस्तु चाहता है, अपने से बड़े और वैभवसम्पन्न सुखी स्थिति के लोगों को देखकर यह इच्छा उत्पन्न होती है कि किसी भी प्रकार से क्यों न हो, हमारे पास भी
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