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कंपटी होते पर के दास
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कहा – “महाराज ! सीधी तरह से बता दीजिए, नहीं तो मैं आपको पुलिस के हवाले करूँगा, फिर मार खाकर आपको बताना पड़ेगा ।" महात्मा मार के डर से काँपने लगा, उसने नम्रता से कहा - "ऐसा करके महात्मा की इज्जत मत लेना भाई ! चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें तुम्हारी गठड़ी बता देता हूँ ।" और झटपट महात्मा नदी तट पर उस वृक्ष के नीचे सेठ को लाया और वहाँ खोदकर सेठ को वह गठड़ी बता दी । गठड़ी पाकर सेठ अपने घर लौट गया, परन्तु महात्मा की माया और गूढ़ माया को देखकर उसकी श्रद्धा समाप्त हो गई । इसीलिए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर उच्च साधकों को हिदायत दी गई है
"मायं च वज्जए सया । मायामोसं विवज्जए ॥ "
साधक सदा माया का त्याग करे ।
मायामृषा ( कपट सहित असत्य) से भी सदा दूर रहे |
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साधक में माया : जीवन का कर देती सफाया
यह इसलिए बताया गया है कि भारत की अन्ध-श्रद्धालु जनता साधुवेष पर मुग्ध हो जाती है; साधु संन्यासी का बेष देखते ही उसके चरणों में तन-मन न्योछावर कर देती है । इसलिए माया प्रायः साधुवेष में अधिक पनपती है । साधुवेष की ओट में दम्भ और माया चलाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले संसार में कम नहीं है । इसी लिए उच्च साधक के लिए तथा धर्माचरण में जरा-सी भी माया क्षम्य नहीं बताई है । साधुवेष में वंचक लोग कैसे धूर्तता करते हैं । सुनिये - कुछ वर्षो पहले समाचारपत्र में पढ़ा था । एक ठग को पता चला कि अमुक धनिक के घर में भूतों का वास है । इसलिए उसे हम है कि उसके परिवार में किसी न किसी की मृत्यु हो जाती है, सन्तान नहीं होती । ठग ने योगी का वेष बनाया और नगर के बाहर अपना अखाड़ा माया । उक्त धनिक ने परमात्मा की शरण न लेकर इस ठगयोगी के चरण पकड़े । ठगयोगी ने सेठ को बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाये । फिर भूत-प्रेत भगाने हेतु घर में घुसा । सबको घर के बाहर निकाल दिया। फिर चारों तरफ से दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द करके सब पेटियाँ खोलकर उनमें से गहने निकाले । उन्हें एक मटके में भरकर उसका मुँह कपड़े से बाँध दिया। ऊपर सील लगादी। फिर दरवाजे खोले और कहा – “मैंने घर के सब भूत प्रेत पकड़ कर इस मटके में भर दिये हैं । अब इन्हें साइकिल पर रखकर जंगल में छोड़कर आता हूँ । जब तक मैं लौटकर न आऊँ, तब तक आप इस कमरे का दरवाजा न खोलें । एक साइकिल भी लाई गई । मटके को उसने लगैज कैरियर पर बाँधा और चल पड़ा। आज तक नहीं लौटा । कुछ घण्टों की प्रतीक्षा के बाद उसकी धूर्तता का रहस्य खुला इसीलिए तो कहा गया है
- उत्तरा० १/२४ - दश० ५/५१
"तन उजला मन सांवला, बगुला कपटी भेख । इनसे तो कागा भला, बाहर भीतर एक ॥"
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