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कपटी होते पर के दास
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को विलकुल रोककर मन ही मन इन्द्रिय विषयों का स्मरण करता रहता है, वह मूढात्मा मिथ्याचारी कहलाता है।
जो व्यक्ति बाहर से तो उज्ज्वल पवित्र सन्त या भक्त के वेष में रहता है, धार्मिक क्रियाकाण्ड भी करता है, भगवान् का जाप भी करता, तपस्या भी करता है, परन्तु अन्दर से उसका मन वश में नहीं है, इन्द्रियों पर उसका नियन्त्रण नहीं है । मन और इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं। वह ध्यान तो लगा लेता है, परन्तु बगुले की तरह उसकी दृष्टि या चिन्तन अपने अभीष्ट सांसारिक पदार्थों की ओर ही होता है ।
बौद्ध जातक में एक कथा है। वाराणसी में ब्रह्मदत्त राजा के राज्य काल में बोधिसत्व चन्दनगोह के रूप में जन्मे थे। वह चन्दनगोह घोर जंगल में रहती थी। एक दिन उसने देखा कि उसके निवास के पड़ोस में ही एक साधु पर्णकुटी बनाकर रहने आए हैं । अतः प्रसन्न होकर सोचने लगी- "अच्छा हुआ, मुझे रोज प्रातःकाल सन्त के दर्शन होंगे।" वह प्रतिदिन प्रातःकाल साधु के दर्शन करने उनकी पर्णकुटी पर जाने लगी।
परन्तु यह साधु सच्चा नहीं था, मायाचारी या मिथ्याचारी था। ऊपर से साधु के क्रियाकाण्ड करता था, पर उसके अन्तर में सांसारिक पदार्थों की लालसा थी। एक दिन उस साधु के कुछ सेवक अपने घर से पका हुआ मांस ले आये थे, उसने अहिंसा मर्यादा का विचार न करके वह मांस खा लिया। माँस उसे बहुत स्वादिष्ट लगा, इसलिए सेवकों से पूछा-"यह माँस तुम किसका लाये थे ?" सेवक बोले"यह तो चन्दनगोह का मांस था।" चन्दनगोह का नाम सुनते ही साधु के मन में एक दुष्ट विचार स्फुरित हुआ कि जो चन्दनगोह प्रतिदिन मेरे दर्शनार्थ आती है उसे पकड़कर चट कर जाऊ।" ढोंगी साधु ने मांस के साथ खाने की सामग्री-घी, दही, मिर्च-मसाले आदि इकट्ठे करने शुरू कर दिये। चन्दनगोह के आने का समय हुआ, तब वह साधु पर्णकुटी के द्वार पर हाथ में लोह का बड़ा-सा सरिया लेकर बैठ गया और मुंह से भगवान् का नाम जपने लगा।
परन्तु यह चन्दनगोह भी कच्ची मिट्टी की नहीं थी। रात को चोर लोग उसका उपयोग करते थे, इसलिए इस बकभक्त की माया उससे छिपी न रह सकी। आज उसके चेहरे पर से वह समझ गई कि कुछ न कुछ दाल में काला है। यह साधु मेरे आने के समय में ध्यान में कभी बैठता नहीं है, पर आज " साधु के रंगढंग देखकर वह वापस मुड़ गई और पर्णकुटी के पीछे आ गई। रसोड़े में से चन्दनगोह के माँस की गन्ध आने से वह समझ गई कि यह ढोंगी साधु मुझे मारने के लिए ताक कर बैठा है। फिर चन्दनगोह पर्णकुटी के अन्दर न घुसकर ज्यों ही बाहर से ही जाने लगी त्यों ही साधु ने हाथ में लिया हुआ सरिया उस पर फेंका । परन्तु चन्दनगोह तो सरसराहट करती हुई वहाँ से चली गयी, उसके हाथ न आयी।
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