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आनन्द प्रवचन : भाग ८
महात्मा के मन में सेठ की बात सुनते ही कपट तो आ ही गया था। ऊपर से वैराग्य की बातें करके वह सेठ पर अपने त्याग-वैराग्य की छाप डालना चाहता था । अतः महात्मा ने नम्रता से कहा- "देखो सेठ ! आपने हमारी इतनी सेवा भक्ति की है । इस लिहाज से हम आपकी अमानत को यहाँ रखने देते हैं । हम तो इसे हाथ से छुयेंगे भी नहीं । तुम्हीं अपने हाथ से इस धूनी को गहरी खोदकर इसमें गाड़ दो
और ऊपर कुछ रेत और राख बिछा दो, ताकि किसी को शंका न हो। पर हाँ हम चातुर्मास पूर्ण होते ही जाएँ, तब तुम अपनी पूंजी सम्भाल लेना।"
सेठ बहुत प्रसन्न हुआ और अपने हाथ से धूनी को गहरी खोदकर उसमें गठड़ी रख दी। ऊपर काफी रेत डाल दी और उसके ऊपर राख । इस प्रकार सेठ निश्चिन्त होकर साधु को प्रणाम करके घर लौट गया।
जब चोरों का उपद्रव समाप्त हो गया, तब सेठ ने सोचा अभी क्या जल्दी है। महात्मा के यहाँ तो मेरा धन सुरक्षित ही है, जब चाहेंगे, तब ले आयेंगे । चातुर्मास पूर्ण होने से एक दिन पहले महात्मा ने रात को वह धूनी खोदी और उसमें से धन की गठड़ी निकालकर उतने ही वजन के पत्थरों की एक दूसरी गठड़ी बाँध कर वहाँ रख दी। धन वाली गठड़ी लेकर वहाँ डेढ़ कोस दूर एक नदी के किनारे पेड़ के नीचे गड्डा खोदकर उसे वहाँ दबा दी। दूसरे दिन चातुर्मास समाप्त होते ही साधु अपना दण्ड कमण्डलु लेकर सेठ से कह कर चल पड़े। कोई डेढ़ मील दूर जाने के बाद ही वे वापस लौटे और सेठ को अपने मस्तक पर चिपका एक तिनका उतार कर वापस देते हुए बोले-लो सेठ ! यह अपना तिनका सम्भाल लो। कहीं मेरे साथ आ जाता तो मुझे चोरी का पाप लगता ।" सेठ श्रद्धापूर्वक बोला- "यह तिनका आप रास्ते में ही डाल देते । इस तिनके को लौटाने के लिए आप वापस क्यों पधारे ?"
__ महात्मा-'अगर मैं नहीं लौटाता तो मुझे घोर पाप लगता। मैं पाप से बहुत डरता हूँ।" सेठ महात्मा की पाप-भीरुता से बहुत प्रभावित हुए। महात्मा वहाँ से चल पड़े तब सेठ के मन में स्फुरणा हुई कि चलूं अपनी धरोहर रखी हुई धन की गठड़ी भी ले आऊँ । सेठ अपनी झोंपड़ी पर पहुँचा और ज्यों ही धुनी को खोद कर देखा तो धन की गठड़ी के बदले पत्थर की गठड़ी ! सेठ के होश गुम हो गये । पहले तो उसे महात्मा के प्रति कोई शंका नहीं थी, किन्तु बोधिसत्त्व ने जब उस महात्मा की फूंक-फूंक कर चलने की वृत्ति देखी तो उन्हें शंका हुई और सेठ को सावधान किया कि उस महात्मा को पकड़ो, उसे थोड़ा-सा धमकाओगे तो वह अपने आप बता देगा। सेठ घोड़े पर बैठकर उसी रास्ते से चल पड़ा, कोई दो कोस पर महात्मा मिल गये। सेठ ने उन्हें नमन करके पूछा-"महाराज ! वह गठड़ी कहाँ रखी है ?" महात्मा एकदम आवेश में आकर बोले-सेठ ! मुझे क्या पता । उस गठड़ी का ? मैंने तो उसे न छुआ है, न देखा है। मैंने तो तुम्हें पहले ही कह दिया था, अपनी गठड़ी सम्भाल लें। मैं तो एक तिनका भी ले आया था, वह भी वापस देने आया था, तब धन की गठड़ी मैं कैसे लाता ?" सेठ ने थोड़ा-सा गर्म होकर
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