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कपटी होते पर के दास
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हिंसा नहीं होती, न कोई ब्रह्मचर्य-भंग होता है, फिर उसे पाप क्यों कहा गया? वास्तव में, सीधे तौर पर देखने से माया में जीव हिंसा होती दिखाई नहीं देती, न ब्रह्मचर्यभंग आदि होता मालूम होता है, परन्तु माया से भावहिंसा होती है, जो द्रव्यहिंसा से भयंकर है । फिर माया करने वाला जिसके प्रति माया करता है, उसे कभी-कभी मार भी डालता है, कभी किसी के साथ व्यभिचार सेवन की दृष्टि से माया करता है, माया एक प्रकार का असत्याचार तो है ही। माया कभी-कभी धन लालसावश की जाती है, इसलिए चोरी और परिग्रह ये दोनों पाप माया के द्वारा हो जाते हैं। इसलिए यों कहा जा सकता है कि मायी व्यक्ति किस समय कौन-सा पाप करेगा, यह कहा नहीं जा सकता।
माया साधना को चौपट कर देती है माया करने वाला साधु आचार्य आदि किसी भी पद के योग्य नहीं होता। शास्त्र में एक जगह बताया है कि यदि कोई विद्वान साधु किसी पूर्वकर्म के उदयवश ब्रह्मचर्य आदि में से कोई व्रत भंग कर देता है, परन्तु आचार्य या स्थविर के पास आकर सच्चे हृदय से आलोचना कर लेता है, सत्यवादी है तो उसे आचार्य, उपाध्याय आदि में से कोई भी पद दिया जा सकता है, परन्तु असत्यवादी या माया करने वाले को कोई भी पद नहीं दिया जा सकता !
माया साधक के जीवन में साधना को विखण्डित करने वाली तेज छुरी है जिसे अपनाकर साधक अपनी साधना का सत्यानाश एवं उसे विफल कर देता है, बल्कि माया करने वाला भव्य भी नहीं है । एक आचार्य कहते हैं
"या प्रत्ययं बुधजनेषु निराकरोति, पुण्यं हिनस्ति परिवर्द्ध यते च पापम् । सत्यं निरस्यति तनोति विनिन्यभावं
तां सेवते निकृतिमत्र जनो न भव्यः । जो विद्वानों के हृदय में विश्वास नष्ट कर देती है, पुण्य को खत्म कर देती है और पाप को बढ़ाती है, सत्य को ठुकराती है और निन्द्य भावों को जीवन में फैलाती है, उस माया का जो सेवन करता है, वह व्यक्ति भव्य नहीं है।
मायी की सभी प्रवृत्तियाँ कुटिल इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि माया मानव जीवन के लिए कितनी अनर्थकर हैं। जिस जीवन में माया आ जाती है उसकी प्रत्येक गति, मति, प्रवृत्ति व्यवहार, वाणी और विचार आदि कुटिल हो जाते हैं, वे सीधे, सहज, सरल, सरस
और स्वाभाविक नहीं रहते, खासतौर से औपचारिक हो जाते हैं। वह किसी के साथ बोलता है, तो भी मन में कुटिलता रखकर, किसी के प्रति शुभकामना व्यक्त करता है, तो भी कुटिलता-पूर्वक, किसी के साथ अच्छा व्यवहार करता है तो भी उसके पीछे
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