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अभिमानी पछताते रहते
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छोटे भाई के पास जब यह समाचार पहुँचा तो उसने बड़े भाई की बात का प्रतिवाद करते हुए कहा-"यह सुपारी का पेड़ मेरे खेत की हद में है। इस पर आपका कोई अधिकार नहीं है।" इस पर बड़े भाई को बहुत गुस्सा आया। उसने कहा-"कैसे नहीं है मेरे खेत की सीमा में यह पेड़ ? मैं कल ही देख आया हूँ।" असल में वह सुपारी का पेड़ दोनों भाइयों के खेत की सीमा पर था । किन्तु दोनों के अहं को चोट पहुँचने से दोनों ही झगड़ा करने पर तुल गये। जब वादविवाद से बात नहीं सुलझी तो वे मुकद्दमेबाजी करने पर उतारू हो गये । दोनों में से कोई भी अपनी बात छोड़ने को, या कुछ भी त्याग करने को तैयार न था। दोनों अभिमान के हाथी पर चढ़े हुए थे । आखिर मुकद्दमा कोई दस साल तक चला। दोनों पक्ष के हजारों रुपये खर्च हो गये, पर फैसला अभी तक न हुआ। आखिर एक नये समझदार न्यायाधीश के पास यह मुकद्दमा पहुँचा तो उसे इन दोनों की मूर्खता पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने मुकद्दमे का फैसला करने के लिए स्वयं खेता का मुआयना किया। दोनों के खेत की सीमा पर खड़े सुपारी के पेड़ को देख कर न्यायाधीश ने मन ही मन कुछ सोचा और तुरन्त पास में खड़े चपरासी को आदेश दिया-"इस पेड़ को काट डालो, ताकि यह झगड़े की जड़ ही खत्म हो जाय ।। पेड़ कट जाने के बाद न्यायाधीश ने मुकद्दमे का फैसला दे दिया-चूंकि जो पेड़ दोनों भाइयों के बीच में विवाद का विषय था, अब समाप्त करा दिया गया है-इसलिए अब यह मुकद्दमा इसके साथ ही खारिज किया जाता है।"
___बन्धुओ ! क्या आप सोच सकते हैं कि अहं का झगड़ा कितना बेबुनियाद था । फैसला हो जाने पर तो दोनों भाइयों को बहुत ही पश्चात्ताप हुआ कि हमने व्यर्थ ही हजारों रुपये मुकद्दमेबाजी में खर्च किये, लेकिन पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा। इतने रुपयों में कई नये सुपारी के पेड़ लगाये जा सकते थे। पर अहं की पूजा जो करनी थी,
उन्हें ।
अभिमानी का चिन्तन ___ इसीलिए गौतमकुलक में कहा है-माणंसिगो सोयपरा हवंति-अभिमानी लोग अन्त में शोक-परायण होते हैं। उन्हें अन्त में किये का पछतावा होता है, चिन्ता होती है । अपनी झूठी शेखी पर रोना पड़ता है ।
अहंवादी अभिमानी का चिन्तन अपने ही 'स्व' में सीमित बन्द होता है, वह सोचता है—'बुद्धिमान कौन ? जो मेरी तरह सोचे, मूर्ख कौन ? जिसके विचार मुझ से न मिलें । आदर्श क्या है ? जिस पर मैं चलूं। अभिमानी सोचता है-'जगत मेरे अधीन रहे, विनम्र सोचता है ---मैं जगत का सेवक बनकर रहूँ । परन्तु अभिमानी की सारे जगत को अपने-अपने अधीन बनाने की बात स्वप्न में भी तीन काल में भी नहीं बनती। इसलिए आखिर उसे अपनी बात पर विचार करने को विवश होना पड़ता है । नहीं विचार करता है तो अन्त में उसे बार-बार यह चिन्ता करनी पड़ती
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