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पण्डित रहते विरोध से दूर १२१ हैं आप ? मैं तो आपको गुरु मानता हूँ। उधर द्विवेदीजी का भी यह तर्क था कि आप तो मेरे गुरु हैं।” बाद में झा महोदय ने द्विवेदीजी का अभिनन्दन करते हुए कहा- "मुझे एक बार द्विवेदी जी ने लेख लिखने के लिए कहा । बड़ी मुश्किल से समय निकालकर मैंने एक लेख लिखकर इन्हें भेजा । लगभग एक मास बाद 'सरस्वती में आदि से अन्त तक द्विवेदीजी ने संशोधित करके प्रकाशित किया। इसलिए मैं तो सदैव यही कहूँगा कि द्विवेदी जी मेरे गुरु हैं, क्योंकि इन्होंने संशोधन करके मुझे हिन्दी लिखना सिखाया है।
___इस प्रकार की नम्रता और निरभिमानता जब पण्डित में होती है, तो कहीं विरोध नहीं होता, बल्कि नम्र मनुष्य दूसरों से बहुत कुछ सीख सकता है । अगर ये दोनों पण्डित अहंकारी होते तो इनमें परस्पर विरोध होता, एक दूसरे को ये भलाबुरा कहते और कटुता फैलती।
___ अहंकारी पण्डित दूसरों को नीचा दिखाने और स्वयं महान् बनने के लिए दूसरों-प्रतिस्पधियों को मिटाने की कोशिश करता है। इसके परिणामस्वरूप परस्पर संघर्ष, पदों की छीनाझपटी आदि विरोध पैदा होते हैं। जो विद्वान दूसरों को मिटाकर, दूसरों को नुकसान पहुँचाकर, उनकी नुक्ताचीनी करके आगे बढ़ने का स्वप्न देखते हैं, उनका असफल होना निश्चित है । ऐसे व्यक्ति अपने चारों ओर विरोधियों और असहयोगियों की पलटन खड़ी कर लेते हैं। संत विनोबाजी के शब्दों में सफलता के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार है-"पड़ौसी के पास ७ सेर ताकत है और मेरे पास १० सेर । यदि दोनों परस्पर टकराएँगे तो परिणाम में १०-७ = ३ सेर ताकत ही बच रहेगी। दोनों पक्षों की ही हानि होगी। यदि दूसरी स्थिति में मिलकर श्रम किया जायेगा तो १०+७=१७ सेर ताकत पैदा होगी, जिससे सफलता अधिक मात्रा में अजित होगी। मेरे दो हाथ और आपके दो हाथ मिलकर २+२=४ हाथ होते हैं; किन्तु जब ये परस्पर टकरायेंगे तो नतीजा २–२= 0 शून्य ही निकलेगा।
जब लोग दूसरों की गर्दन काटकर स्वयं पनपने की कोशिश करते हैं, दूसरे के बढ़ते हुए पैरों को खींचकर स्वयं आगे बढ़ने का स्वप्न देखते हैं, दूसरों का खून चूस कर स्वयं मोटा बनना चाहते हैं, दूसरों को उजाड़कर अपना घर बसाना चाहते हैं, दूसरों का सुख छीनकर स्वयं सुखी बनना चाहते हैं तो निश्चित है कि इन समाज विरोधी अमानुषिक कार्यों के परिणाम अन्ततः प्रतिकूल व दुःखप्रद ही मिलेंगे। क्रिया की विरोधी प्रतिक्रिया अवश्य होती है। अत: पण्डित को समाज विरोधी चोरी, डकैती, हत्या, लूट, शोषण आदि से सदैव बचना चाहिए।
अहंकार के वश मनुष्य दूसरों का अपमान और तिरस्कार भी कर बैठता है, खासकर अपने से छोटों का अपमान वह बातबात में कर बैठता है, परन्तु ऐसा करने से विरोध की प्रतिक्रिया पैदा होती है। पण्डित मदनमोहन मालवीय के पुत्र गोविन्द
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