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आनन्द प्रवचन : भाग ८
इसीलिए एक विद्वान कहते हैं
हरत्येकदिने नैव ज्वरं पाण्मासिकं बलम् ।
क्रोधेन तु क्षणेनैव कोटिपूर्वाजितं तपः ॥ एक दिन का ज्वर छह महीने का बल नष्ट कर देता है, जबकि क्षण भर का क्रोध करोड़ पूर्वो में उपार्जित तप को नष्ट कर देता है। एक पाश्चात्य विचारक का कहना है-He who can suppress a moment's anger may prevent a day of sorrow. केवल एक बार के क्रोध से मनुष्य का सारा दिन खराब हो जाता है, अगर वह क्षणभर, क्रोध पर काबू पाले, तो सारे दिन के दुःख को रोक सकता है।
वास्तव में जहाँ क्रोध होगा, वहाँ व्रत, नियम, तप, जप आदि केवल कायक्लेश व्यर्थ कष्टकारक ही होंगे।
तपरवी ने उत्कट तप तो किया, मगर क्रोध दुर्वासा का-सा बना रहा। अभिमान सर्प भी फुफकार रहा था। गुरुजी के पास आए, पारणा लाने की आज्ञा मांगी। गुरु ने कहा-'पतला पाड़।' मुनि ने सोचा-'देह मोटा' हो जाने से ऐसा कहते हैं । बेले का तप किया, फिर तेला किया, किन्तु गुरु बार-बार 'पतला पाड़' वाक्य को ही दोहराते रहते थे। एक दिन गुरुजी ने तपस्वी को जब फिर कहा'पतला पाड़' तो सुनते ही वे तमतमा उठे, अपनी छोटी उंगली को तोड़ कर फेंकते हुए बोले- इसे इतना पतला (कृश) तो कर दिया, फिर और कितना दुर्बल करूं इसे ? मुस्टन्ड बने तो आपके ये चेले बैठे हैं, ये नहीं दीख रहे हैं, मैं ही आपकी आँख में खटक रहा हूँ।" गुरुजी तपस्वी का कोप काण्ड देखकर बोले-'इस क्रोधादि कषाय को ही पतले कर, शरीर की कृशता तो मुझे भी दीख रही है। तेरे इस कृश शरीर में भी कषाय का दावानल कितना उग्र रूप से सुलग रहा है ? अतः कषायों को दुर्बल कर !" सचमुच तपस्वी की इतनी उत्कट साधना व तपस्या क्रोध विजय के बिना निरर्थक एवं कायक्लेशकर थी, वह तपस्या क्रोध आदि के साथ होने से दुःखदायक सिद्ध ही हुई। क्रोध से शारीरिक हानि कितनी भयंकर
तपस्या से शरीर जितना कृश होता है, उसकी अपेक्षा भी क्रोध से कई गुना क्षीण होता है। डा. जे. एस्टर का कहना है कि साढ़े नौ घण्टे के शारीरिक श्रम से जितनी शक्ति क्षीण होती है, पन्द्रह मिनट के क्रोध से उतनी ही शक्ति क्षीण हो जाती है।"
डॉ० अरोली ने अनेक परीक्षण के बाद घोषित किया है कि क्रोध के कारण रक्त अशुद्ध हो जाता है। अशुद्धता के कारण चेहरा और सारा शरीर पीला पड़ जाता है । पाचन शक्ति बिगड़ जाती है। नसें खिंचती हैं, तथा गर्मी और खुश्की का
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