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२४८ आनन्द प्रवचन : भाग ८
स्वत्त्व को सबसे अधिक तूल देता है, अपने देश, प्रान्त जाति, कुल, बल, रूप, परिवार आदि की बढ़चढ़ कर गुणगाथा गाता है, अपनी ही बात को मनवाने का प्रयत्न करता है, अपनी आज्ञा को सर्वोपरि और अन्तिम समझता है, अपने ही माने हुए सत्य को सत्य समझता है, किसी की सफलता का श्रेय स्वयं ही ले लेता है, दूसरे किन्हीं सहायकों या सहयोगियों को श्रेय नहीं देता, यहाँ तक कि ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने वाला व्यक्ति भी जगत् में जो भी अच्छे काम हुए हैं या होते हैं; उनका श्रेय स्वयं लेता है, अहंकर्तृत्व से प्रेरित होकर ऐसा व्यक्ति अच्छे कामों का कर्ता अपने आपको मानता है । एक कवि ऐसे अभिमानियों के मानस का चित्रण करता है
अच्छा हो तो मैंने किया है, कहता है इन्सान, बुरा सब करते हैं, भगवान ।
धन में फूला, मोह में झूला, बकता है अज्ञान ||बुरा सब ॥ ध्रुव ॥
मैंने लाख करोड़ कमाया, मैंने ऊँचा भवन बनाया ।
मैंने कारोबार बढ़ाया, मेरी है यह सारी माया ||
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अपनी सफलताओं पर करता रहता है अभिमान ||बुरा सब. ॥१॥ लड़के-लड़की खूब पढ़ाए, बी. ए. बी. टी., एम. ए. बनाए । शादी की, बहू घर में लाए, तब तो मैं-मैं सदा सुनाए ।
मर जाए तो ईश्वर के सिर, दोष धरें नादान ॥ बुरा सब ॥ २ ॥
रखने या अपनी
धर्म-सम्प्रदाय में,
निष्कर्ष यह है कि अहंकारी व्यक्ति सदैव अपनी नाक ऊँची टांग ऊँची रखने का प्रयत्न करता है, वह समाज में, जाति में, राष्ट्र और प्रान्त में सबसे अपना लोहा मनवाना चाहता है, अपनी धाक जमाना चाहता है, अपने वैभव और सत्ता के बल पर छा जाना चाहता है, अपनी स्वल्प विद्या और बुद्धि के बल पर सारे संसार को अपने इशारे पर नचाना चाहता है, अपनी भुजा एवं वाणी - बल पर वह दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, अपने सौन्दर्य के गर्व पर वह सभी को अपनी ओर आकर्षिक करना चाहता है, अपनी तपस्या का अभिमान करके वह दुनिया में अपने को सर्वश्रेष्ठ तपस्वी घोषित करना चाहता है, अपने थोड़े-से दान को लेकर जगत् में महादानी कहलाना चाहता है, अपनी प्रसिद्धि, अपनी यशः कीर्ति और अपनी प्रतिष्ठा के लिए वह एड़ी से लेकर चोटी तक का पसीना बहा देता है, भले ही उसमें इतनी योग्यता, क्षमता, गुणवत्ता, शक्ति या सामर्थ्य न हो, भले ही दूसरे उससे भी कई गुना अधिक शक्तिशाली, गुणवान्, बलवान्, बुद्धिमान्, योग्य, कार्यक्षम एवं सामर्थ्यवान् हों । मतलब यह है कि वह 'अधजल गगरी छलकत जाय' वाली कहावत दुनिया में चरितार्थ करता है । ऐसे ही लोगों के लिए संस्कृत के एक कवि ने कहा है
" सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दमर्धो घटो घोषमुपैति नूनम् । विद्वान् कुलीनो न करोति गर्व, जल्पन्ति मूढास्तु गुणैविहीनाः ॥ "
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