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आनन्द प्रवचन : भाग ८
( ४ ) मन और कार्य की दिशा बदलिए ।
(५) क्रोध आते ही पंचपरमेष्ठी मंत्र का स्मरण कीजिए ।
महाराष्ट्र के संत एकनाथ कैसे ही क्रोध का निमित्त उपस्थित होने पर क्रोध
को नहीं आने देते थे । एकबार गाँव ( पैठन) के लोगों ने उनके अक्रोध की परीक्षा लेने की ठानी। दूसरे गाँव के एक ब्राह्मण को प्रलोभन देकर उन्हें क्रोध लाने का षड्यंत्र रचा । परन्तु ज्यों ही वह गंदे कपड़े और जूतों सहित पूजागृह में बैठे संत एकनाथ की गोद में जा बैठा, त्यों ही एकनाथ मुस्करा कर बोले- कहो, ब्राह्मण देवता ! आज कैसे दर्शन दिए ! मालूम होता है, आप बहुत जरूरी काम से जल्दी में आए हैं । इसलिए तो आपने जूते भी नहीं खोले । मेरे प्रति आपका कितना हार्दिक स्नेह है । कहिए आपकी क्या सेवा करूँ ?" आगन्तुक ब्राह्मण तो उनके सस्नेह व्यवहार से पानीपानी हो गया । वह क्षमा मांग कर विदा हुआ ।
महाराजा रणजीतसिंह के कपाल पर एक पत्थर लगा। एक बुढ़िया ने जामुन के फल पाने के लिए जामुन को मारा था, पर लग गया उनके कपाल पर । क्रोध आना स्वाभाविक था । मगर महाराजा बिलकुल क्रुद्ध न हुए । बुढ़िया से पत्थर मारने का कारण पूछा। बाद में चिन्तन की चिनगारी मस्तिष्क में प्रकटी - पत्थर मारने पर जामुन का पेड़ तो फल देता है, मैं मनुष्य होकर क्या इसे दण्ड दूंगा ? नहीं, इसकी गरीबी मिटानी चाहिए । बस, यों सोचकर बुढ़िया को एक हजार रुपये इनाम दिये गये जीवन निर्वाह के लिए । क्रोधात्पत्ति के बदले सहानुभूति उत्पन्न हुई ।
मुनियों के लिए स्पष्ट कहा गया है- आसुरत्तं न गच्छिज्जा - झटपट लाल पीला न हो जाए, वह 'उवसमेण हणे कोहं' शान्ति से क्रोध को मारे ।" इस प्रकार क्रोध पर जो विजय प्राप्त कर लेता है, वही संसार में सुखशान्ति और समृद्धि का धनी होता है, सबको अपना बना लेता है। इसके विपरीत जो बात-बात में क्रोध के वशीभूत हो जाता है वह सुखशान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। यही बात गौतम ऋषि ने इस जीवन सूत्र में कही है-
कोहाभिभूया न सुहं लहंति ।
धाभिभूत जन सुख नहीं पाते। आप इस पर चिन्तन-मनन करके अपना जीवन, क्रोध से मुक्त कीजिए ।
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