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सत्त्ववान् होते दृढधर्मी
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भोजन आपको खिलाना है। दीवानजी जैन होने के नाते माँस तो खिला नहीं सकते थे। इसलिए मिठाई का थाल लेकर शेर के पिंजरे के सामने पहुँचे । सिंह ने पहले तो मुंह फिरा लिया, मिठाई देखकर। दीवान साहब ने सिंह से कहा-"भाई ! मैं तुम्हें दूध, मिठाई या रोटी आदि के सिवाय और कोई हिंसा से निष्पन्न वस्तु दे नहीं सकता । इसलिए या तो इसे स्वीकार करो, या फिर मेरा मांस स्वीकार करो। दूसरे किसी पशु का माँस मैं नहीं दे सकता।" कहते हैं, बुद्धिमान सिंह शीघ्र ही मिठाई खाने लगा। यह दीवानजी के अहिंसा धर्म पर दृढ़ रहने का चमत्कार था।
एक जैन व्यापारी के पुत्र ने किसी को रकम देनी थी सो बहीखातों में गड़बड़ करके वह बिलकुल निकाल दी । साहूकार ने मुकद्दमा दायर किया । न्यायाधीश के समक्ष सब बहियाँ पेश की गयीं । बहियों में तो कोई कर्ज लेने का उल्लेख तक न था । प्रतिपक्षी के वकील ने कहा--"साहब ! इस व्यापारी का पिता सत्यवादी है, वह अगर कह दे कि मेरे मवक्किल से इसने कुछ भी रुपये नहीं लिये हैं तो मैं मुकद्दमा वापिस लेने को तैयार हूँ।" न्यायाधीश ने उसके पिता को बुलवाने का निश्चय किया। इधर कर्जदार व्यापारी ने अपने पिता से बहुत अनुनय-विनय की, झूठ बोलकर अपने को बचाने की। मगर सत्य धर्म पर दृढ़ पिता इस बात के लिए कतई तयार न हुआ। आखिर उसके पिता ने न्यायाधीश के सामने सच-सच बयान दिये। कर्जदार प्रतिपक्षी उसका पुत्र हार गया। फिर उसके सत्यवादी पिता ने अपने पुत्र को आजीवन करावास की सजा के बदले उसे भविष्य में कभी ऐसा असत्याचरण न करने की प्रतिज्ञा दिला कर बहुत कम सजा से छुटकारा दिलाया।
शील के विषय में सेठ सुदर्शन की धर्म दृढ़ता का ज्वलन्त उदाहरण है । ईमानदारी के विषय में दृढ़ता का एक ज्वलन्त उदाहरण है, फलौदि वाले सेठ पद्मचन्द जी कोचर का। अहमदाबाद में नवामाधुपुरा में इनकी होलसेल कपड़े की दुकान है। फर्म का नाम है-"सरदारमल पाबूदान ।” यह दुकान अपनी ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। एक बार इन्कमटैक्स के अधिकारियों ने सेठजी की फर्म का टैक्स कम आंका । सेठजी के ध्यान में यह बात आते ही उन्होंने इन्कमटैक्स विभाग के कर्मचारियों को बुलाकर बताया कि मेरी फर्म का टैक्स कम आंका गया है, इसकी जाँच करें।" उन्होंने जाँच की तो भूल निकली। अतः सेठजी ने बाकी का इन्कमटैक्स और भी दिया। तब से सेठजी की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी कि इन्कमटैक्स वाले उनकी फर्म की बहियाँ नहीं देखते। सेठजी जितनी इन्कम बता देते उतनी वे मान लेते।
याज्ञवल्क्य ने सन्यास लेते समय अपनी दो पत्नियों में धन बाँटना चाहा तो मैत्रेयी ने साफ कह दिया--जिस धन को लेकर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूँगी ? मुझे तो वह आप धर्मरूपी धन दीजिएं, जिससे मैं अमरत्व प्राप्त कर सकूँ।" सचमुच धर्म को प्राप्त करने के लिए धन का प्रलोभन ठुकराना बहुत बड़ी बात है।
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