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आनन्द प्रवचन : भाग ८
मनुष्य सुखी तभी हो सकता है, जब उसका मनमस्तिष्क संतुलित हो । जिसका मन क्षुब्ध रहता हो, दिमाग आउट हो जाता हो, वह सुख का अनुभव जरा भी नहीं कर सकता । कोई व्यक्ति पागल हो जाता है, तो घर वाले उसको सांकलों से बाँध कर रखते हैं, वह उस समय पराधीन हो जाता है, चाहे जो कुछ अंट-संट बकता है, किसी समय दूसरे पर प्रहार भी कर देता है, सावधानी न रखी जाए तो वह अपना सिर भी फोड़ लेता है । वह पागल चाहे जितना धनी हो, सुखसुविधाएँ उसके घर में भरपूर हों, चाहे उसका परिवार लम्बा चौड़ा और अच्छा हो, नौकर-चाकर भी अनेक हों, लेकिन पागल हो जाने पर उसे एक कोठरी में बंद कर दिया जाता है और बांध कर रखा जाता है। ऐसी स्थिति में जैसे पागल को कोई सुखानुभूति नहीं होती, वैसे ही क्रोधी व्यक्ति को भी क्रोधावेश में किसी प्रकार की सुखानुभूति नहीं होती।
क्रोधावेश में मनुष्य की मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है। वह मन में क्षुब्ध रहता है, इस कारण वह किसी भी प्रकार के सुख का उपभोग नहीं कर सकता। इसीलिए, योगशास्त्र में कहा है-.
_ 'क्रोधः शमसुखार्गला' क्रोध, शान्ति और सुख में रुकावट डालने वाला है। क्रोधाग्निः स्वपर-दाहक
क्रोध एक प्रकार की भयंकर आग है, जो स्वयं को तो जलाती ही है, जिनके प्रति क्रोध किया जाता है, उनको भी संताप से जलाती है । जहाँ भयंकर आग लगी हो, वहाँ मनुष्य सुख से नहीं रह सकता, और न ही आग की लपट से दूसरों को बचा सकता है। जो भी व्यक्ति इसके सम्पर्क में आता है, उसे जलाती है। बाहरी व्यक्तियों को तो यह तब जला पाती है, जब वे इसके सम्पर्क में आते हैं। किन्तु उस वस्तु को निरन्तर ही जलाती रहती है, जो इसके आश्रित होती है, क्योंकि उससे उसका सतत सम्बन्ध होता है । इसी प्रकार दूसरों को क्रोधाग्नि तभी हानि पहुँचाती है, जब उसका सम्बन्ध होता है, किन्तु उसको तो हरदम ही जलाती रहती है, जो इसको आश्रय देता है। बुद्धि तो क्रोध की आग में जलकर नष्ट हो जाती है, क्रोध में मनुष्य न करने योग्य कार्य कर बैठता है, उसका कारण बुद्धिनाश ही है। यदि बुद्धि ठीक रह सके
और मानसिक सन्तुलन बना रह सके तो मनुष्य क्रोध होने पर भी ध्वंस के मार्ग से बचा रह सकता है।
एक प्राचीन नीतिकार का कथन है-'क्रोधश्चेदनलेन किम् ?' जिसने क्रोध की अग्नि अपने हृदय में प्रज्ज्वलित कर रखी है, उसे चिता से क्या प्रयोजन ? वह तो बिना चिता के ही जल जाएगा। इसीलिए ऋषिभाषित में स्पष्ट कहा है
"कोहेण अप्पंडिहति परं च अत्यं च धम्मं च तहेव कामं । तिव्वंपि वेरंपि करेंति कोधा, अधमं गति वावि उविति कोधा॥"
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